नौका और वायु का दृष्टांत

नौका और वायु का दृष्टांत

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-अर्जुन का प्रश्न स्थित प्रज्ञ सिद्ध पुरुष के विषय में था। इस श्लोक में साधक का वर्णन है, क्योंकि इसका फल प्रसाद की प्राप्ति के द्वारा ही शीघ्र ही बुद्धि का स्थिर होना बतलाया गया है। अतएव अर्जुन के चैथे प्रश्न का उत्तर इस श्लोक से कैसे माना जा सकता है?

उत्तर-यद्यपि अर्जुन का प्रश्न साधक के सम्बन्ध में नहीं है, परन्तु अर्जुन साधक हैं और भगवान् उन्हें सिद्ध बनाना चाहते हैं। अतएव सुगमता के साथ उन्हें समझाने के लिये भगवान् ने पहले साधक की बात कहकर अन्त में इकहत्तरवें श्लोक में उसका सिद्ध में उपसंहार कर दिया है। अर्जुन के प्रश्न का पूरा उत्तर तो उस उपसंहार में ही है, उसकी भूमिका का आरम्भ इन्हीं श्लोकों से हो जाता है। अतएव अर्जुन के चैथे प्रश्न का उत्तर यहीं से आरम्भ होता है, ऐसा ही मानना उचित है।

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।

न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।। 66।।

प्रश्न-‘अयुक्तस्य’ पद यहाँ कैसे मनुष्य का वाचक है?

उत्तर-जिसके मन और इन्द्रिय वश में किये हुए नहीं हैं एवं जिसकी इन्द्रियों के भोगों में अत्यन्त आसक्ति है, ऐसे विषयासक्त अविवेकी मनुष्य का वाचक यहाँ ‘अयुक्तस्य’ पद है।

प्रश्न-अयुक्त में बुद्धि नहीं होती-इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि इकतालीसवें श्लोक में वर्णित ‘निश्यात्मिका बुद्धि’ उसमें नहीं होती; नाना प्रकार के भोगों की आसक्ति और कामना के कारण उसका मन विक्षिप्त रहता है, इस कारण वह अपने कर्तव्य का निश्चय करके परमात्मा के स्वरूप में बुद्धि को स्थिर नहीं कर सकता।

प्रश्न-अयुक्त के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि मन और इन्द्रियों के अधीन रहने वाले विषयासक्त मनुष्य में ‘निश्यात्मिका बुद्धि’ नहीं होती, इसमें तो कहना ही क्या है; उसमें भावना भी नहीं होती। अर्थात् परमात्मा के स्वरूप में बुद्धि का स्थिर होना तो दूर रहा, विषयों में आसक्ति होने के कारण वह परमात्मा स्वरूप का चिन्तन भी नहीं कर सकता, उसका मन निरन्तर विषयों में ही रमण करता रहता हे।

प्रश्न-भावना हीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह दिखलाया गया है कि परम आनन्द और शन्ति के समुद्र परमात्मा का चिन्तन होने के कारण अयुक्त मनुष्य का चित्त निरन्तर विक्षिप्त रहता है; उसमें राग-द्वेष, काम-क्रोध और लोभ-ईष्र्या आदि के कारण हर समय जलन और व्याकुलता बनी रहती है। अतएव उसको शान्ति नहीं मिलती।

प्रश्न-शान्ति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है? इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि चित्त में शान्ति का प्रादुर्भाव हुए बिना कहीं किसी भी अवस्था में किसी भी उपाय से मनुष्य को सच्चा सुख नहीं मिल सकता। विषय और इन्द्रियों के संयोग में तथा निद्रा, आलस्य और प्रमाद में भ्रम से जो सुख की प्रतीति होती है, वह वास्तव में सुख नहीं है, वह तो दुःख का हेतु होने से वस्तुतः दुःख ही है।

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।

तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।। 67।।

प्रश्न-‘हि’ पद का क्या भाव है?

उत्तर-पूर्व श्लोक में यह बात कही गयी कि अयुक्त मनुष्य में निश्चल बुद्धि, भावना, शान्ति और सुख नहीं होते; उसी बात को स्पष्ट करने के लिये उन सबके न होने का कारण इस श्लोक में बतलाया गया है-इसी भाव का द्योतक हेतु वाचक ‘हि’ पद है।

प्रश्न-जल में चलने वाली नौका और वायु का दृष्टान्त देकर यहाँ क्या बात कही गयी है?

उत्तर-दृष्टान्त में नौका के स्थान में बुद्धि है, वायु के स्थान में जिसके साथ मन रहता है, वह इन्द्रिय है, जलाशय-के स्थान में संसार रूप समुद्र है और जल के स्थान में शब्दादि समस्त विषयों का समुदाय है। जल में अपने गन्तव्य स्थान की ओर जाती हुई नौका को प्रबल वायु दो प्रकार से विचलित करती है-या तो उसे पथ भ्रष्ट करके जल की भीषण तरंगों में भटकाती है या अगाध जल में डुबो देती है; किन्तु यदि कोई चतुर मल्लाह उस वायु की क्रिया को अपने अनुकूल बना लेता है तो फिर वह वायु उस नौका को पथ भ्रष्ट नहीं कर सकती, बल्कि उसे गन्तव्य स्थान पर पहुँचाने में सहायता करती है। इसी प्रकार जिसके मन-इन्द्रिय वश में नहीं हैं, ऐसा मनुष्य यदि अपनी बुद्धि; को परमात्मा के स्वरूप में निश्चल करना चाहता है तो भी उसकी इन्द्रियाँ उसके मन को आकर्षित करके उसकी बुद्धि को दो प्रकार से विचलित करती हैं। इन्द्रियों का बुद्धि रूप नौका को परमात्मा से हटाकर नाना प्रकार के भोगों की प्राप्ति का उपाय सोचने में लगा देना, उसे भीषण तरंगों में भटकाना है और पापों में प्रवृत्त करके उसका अधः पतन करा देना, उसे डुबो देना है। परन्तु जिसके मन और इन्द्रिय वश में रहते हैं उसकी बुद्धि को विचलित नहीं करते वरं बुद्धि रूप नौका को परमात्मा के पास पहुँचाने में सहायता करते हैं। चैंसठवें और पैंसठवें श्लोकों में यही बात कही गयी है।

प्रश्न-सब इन्द्रियों द्वारा बुद्धि के विचलित किये जाने की बात न कहकर एक इन्द्रिय के द्वारा ही बुद्धि का विचलित किया जाना कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-इससे इन्द्रियों की प्रबलता दिखलायी गयी है। अभिप्राय यह है कि सब इन्द्रियाँ मिलकर मनुष्य की बुद्धि को विचलित कर दें, इसमें तो कहना ही क्या है; जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय बुद्धि को विषय में फँसाकर विचलित कर देती है। देखा भी जाता है कि एक कर्णेन्द्रिय के वश होकर मृग, स्पशेंन्द्रिय के वश होकर हाथी, चक्षु-इन्द्रिय के वश होकर पतंग, रसना-इन्द्रिय के वश होकर मछली और घ्राणेन्द्री के वश में होकर भ्रमर। इस प्रकार केवल एक-एक इन्द्रिय के वश में होने के कारण से सब अपने प्राण खो बैठते हैं। इसी तरह मनुष्य की बुद्धि भी एक-एक इन्द्रिय के वश में होने के कारण ये सब अपने प्राण खो बैठते हैं। इसी तरह मनुष्य की बुद्धि भी एक-एक इन्द्रिय के द्वारा ही विचलित की जा सकती है।
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