जन्मों का प्यास

जन्मों का प्यास

         ----:भारतका एक ब्राह्मण.
             संजय कुमार मिश्र'अणु'
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पहले सोचता था
जब कभी मैं
जाऊंगा समुद्र के पास
तो फिर मिटा लूंगा
अपने जन्मों का प्यास
पर अफसोस
मैं जब वहाँ गया
तो वो बहुत इतरा रहा था
अपने लहरों से मुझे डरा रहा था
करते हुए भीषण गर्जना
मैं तो बस उसे निहारता रहा
कुछ भी नहीं कहा
स्वयं में हीं सीमटा रहा
उसके पास नहीं था पानी
जो मेरी प्यास बुझा करता मेहरबानी
उसके पास था तो केवल
लहर और फेन
बस लौट चला मैं येनकेन
जिसका मुझे इंतजार था
उससे न उसे जरा दरकार था
जबकी था भरा हुआ
उसके अंदर पानी बहुत सारा
लेकिन वो खारा था बिल्कुल खारा
अपने मन में मैं रखकर प्यास
लौट आया समुद्र तट से
होकर बेहद उदास
जबकि बहुत थे मेरे साथी संगी
पर सबके पास थी समय की तंगी
कुछ लोग लिए लहरों का आनंद
तो कुछ लोग लिए घुडसवारी का मजा
और मैं तट पर खडा खडा
बस देखता रहा उसे एकटक सपने सजा
ये सोचकर कि
बेकार है ये समुद्र
पानी तो बहुत है मगर
बूंद बूंद है क्षुद्र
इससे तो अच्छी है नदियां
जो बुझा देती है प्यास
उसका जो आता है पास
इससे तो अच्छे हैं झील,आहर,पोखर
जहाँ से लौटते हैं लोग प्यास को खोकर
मुझे नहीं चाहिए
वो अनंत जलराशि
जो हो केवल आभासी
अच्छे हैं मेरे गांव के कूप
जो हर लेते है सबका
अपनी शीतलता और स्वाद से
कंठ की गर्मी और तन पर पडी धूफ
जिसका हर बूंद है अमृत
जीसे पीकर कंठ नहीं करता विस्मृत
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वलिदाद,अरवल(बिहार)८०४४०२.
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