पितरों के लिए श्रद्धा प्रकट करना ही श्राद्ध-अशोक “प्रवृद्ध”

पितरों के लिए श्रद्धा प्रकट करना ही श्राद्ध-अशोक “प्रवृद्ध”

वैदिक मतानुसार जीवित चेतन पितरों अर्थात जीते हुए ज्ञानी पुरुषों का श्रद्धापूर्वक भोजनादि से सत्कार करना श्राद्ध करना है। वैदिक मत में जीवित चेतन पितरों, ज्ञाननिष्ठ सत्त्वगुणी पुरुषों का, जो लोक- नाम स्थान है, वही पितृलोक है। जिस प्रदेश अथवा देश में मानस कर्म में प्रधान विचारशील ज्ञानी लोग निवास करते हैं, वह पितृलोक है अथवा उन पितरों के समुदाय मेल का नाम पितृलोक है। पौराणिक ग्रन्थों में जिनके लिये मरने के पश्चात शास्त्रों में पितृलोक में जाना लिखा है, वे पुरुष शरीर छोड़ने के पश्चात पितृजनों के समुदाय अथवा प्रदेश में अर्थात पितरों के घरों में जाकर जन्म लेते हैं। मनुस्मृति में उत्पादक, यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्यादाता, अन्नदाता और भय से बचाने वाला, ये पांच पिता माने गये हैं। इस प्रकार पितृ शब्द योगरूढ़ है, और अपने उत्पादक पिता में रूढ़ि भी है। साधारणतया पिता शब्द से उत्पादक से भिन्न कोई अर्थ नहीं लगाया जाता, लेकिन लौकिक व्यवहार में पिता शब्द से प्रकरणानुसार जनक, यज्ञोपवीत कराने, अन्न देने वा भय से बचाने वाले का ग्रहण होता है। परन्तु श्राद्ध कर्म में विशेष कर पितृ शब्द से विद्यादाता का ग्रहण होता है। अपने उत्पादक पिता की सेवा शुश्रूषा तो सबको सदैव करनी ही चाहिए। ऐसा नहीं करने वालों को कृतघ्न माना जाता है। ज्ञान अथवा विद्या देने वाले ज्ञानी पिता का भी भोजनादि से प्रतिदिन सत्कार करना चाहिए, वही श्राद्ध है। अपने जनक और अन्य यज्ञोपवीत कराने वाले आदि की सेवा को सामान्य प्रकार से तर्पण कहते हैं। श्राद्ध कर्म में पूजने योग्य दो ही हैं- पितृ और देव। वाणी के कर्म में प्रवीण, पढ़ाने और उपदेश करने में सदा प्रवृत्त अर्थात पढ़ाने और उपदेशादि वाणी के कर्म द्वारा विद्या का प्रचार करके जगत का उपकार करने के लिए प्रतिक्षण प्रवृत्त पुरुष देवता कहाते हैं। वाक्, वाणी, सरस्वती, विद्या आदि एकार्थक शब्दों के मद्देनजर विद्यावान लोगों को देव मानना सैद्धांतिक रूप से ठीक ही है। और मानसकर्म ज्ञान में सदा रमण करने, मन ही मन में शुद्ध आनन्द की लहरियों का अनुभव करने, अच्छे-बुरे का सदा विवेक से निर्णय करने, अल्पभाषी, नियमपूर्वक बोलने वाले, अथवा वाणी को वश में करके मौन रहने वाले, जगत के उपकार हेतु सम्यक ज्ञान व अनुभव प्राप्त विषयों को पुस्तकादि द्वारा सरल कर प्रचलित करने वाले पितर हैं। वेदविद्या का दान देने से आचार्य, गुरु को पिता कहते हैं। अज्ञानी को बालक और ज्ञानी को पिता कहते हैं। मनुस्मृति के इन वचनों से पूर्व के वेदोक्त वचनों की सिद्धि होती है।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार जिनमें वाणी के कठोर, मिथ्याभाषण, चुगली और असम्बद्ध बोलनारूप चार दोष न हों, किन्तु सत्य बोलना, हितकारी वाक्य बोलना, प्रियवाणी बोलना और वेदादिशास्त्र पढ़ना इन्हीं चार प्रसंगों में वाणी का व्यय करना, किन्तु क्रोधादि पूर्वक नहीं बोलना ये गुण जिनमें हो वे देव हैं। और मानस विचार में तत्पर रहें अर्थात मन के तीन दोष- किसी दूसरे की वस्तु को लेने की तृष्णा, दूसरों का अनिष्ट विचार, और व्यर्थ असम्भव विचार –ये दोष जिनमें न हों तथा मानस तीन गुण- सब प्राणियों पर दया, निरपेक्ष व सन्तोष और शुभकर्मों परमात्मा की उपासनादि में श्रद्धाभक्ति जिनमें विशेष कर हों वे पितर कहाते हैं। मनुस्मृति व शतपथ ब्राह्मण के इन वचनों से यह स्पष्ट है कि वाचिक पापों से रहित और वाचिक पुण्य करने में प्रवृत्त देव, और मानस पापों से रहित, मानस पुण्य करने में अधिक प्रवृत्त पितृ कहाते हैं। जिनकी वाणी सब प्रकार शुद्ध है, वे देव और जिनका मन सब प्रकार शुद्ध है, वे पितृ लोग कहाते हैं। मानस विचार की रक्षा वाणी से होती है, इसीलिए पितृ कार्य का रक्षक देवकार्य को माना है, तथा देव को ऋषि और पितृ को मुनि भी कहा जाता है। जहां देव, ऋषि, पितृ, सब आते हैं, वहां ऋषि पद वाच्य ब्रह्मचर्याश्रमस्थ वेदाध्येता तपस्वी अन्तेवासी शिष्य लिए जायेंगे। मनुस्मृति तृतीय अध्याय श्राद्ध प्रकरण में कहा गया है कि सत्त्वगुण की प्रधानता होने से बुद्धिवर्द्धक तथा खाने योग्य कव्यपदार्थों को प्रयत्न के साथ ज्ञानियों को खिलाना चाहिए। और होमने योग्य वस्तु चारों प्रकार के विद्वानों को खिलाना चाहिए। उपनिषदों में भी कहा गया है - आत्मज्ञानी की पूजा करें। उपनिषदों के इस वचन से भी ज्ञानी लोगों का ही सत्कार सिद्ध होता है। सत्य-असत्य का विवेक करने वाले ज्ञानी जनों की सम्यक् श्रद्धा, भक्ति से सेवा करने वाले सेवकों पर प्रसन्न होकर वे कल्याण करने के लिए मन लगाते हैं। और श्रेष्ठमार्ग का उपदेश करते वा संकेतमात्र से जता देते हैं कि यह काम ऐसे करना चाहिए अथवा यह नहीं करना चाहिए। इसी कारण ज्ञाननिष्ठ पितृजनों के सेवक भी कल्याणभागी होते हैं। इसी कारण ज्ञानयुक्त पितृजनों की अन्नादि दान से श्रद्धापूर्वक सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए। प्राणियों का प्राण अन्न के ही आश्रय ही होने के कारण ही सब सत्कारों में भोजनार्थ अन्न से सत्कार करना ही सबमें मुख्य माना गया है। भोजन से ही इस शरीर की उत्पत्ति, स्थिति और नाश हो सकता है। सात्त्विक, सत्त्वगुण का बढ़ाने वाला आहार मिलने पर शरीर निरोग व बुद्धि सत्त्वगुण प्रधान, प्रबल वाली होती है। इसी से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि है। वस्त्र और भूषण आदि सुख के साधनों के न मिलने पर भी केवल अन्न और जल के आश्रय से शरीर ठहर सकता है, परन्तु अन्न-जल न मिलने पर अथाह धन व संसार का अधिपति बनने का अवसर आ जाने पर भी शरीर की स्थिति नहीं रह सकती। इसीलिए तर्पण और श्राद्ध में अन्न, जलों से सत्कार करना मुख्य है। प्राचीन काल से ही श्रेष्ठ लोगों के मध्य यही परिपाटी चली आती है। परन्तु कालान्तर में वैदिक ज्ञान से दूर होने से तर्पण व श्राद्ध की इस प्राचीन परम्परा में विकृति आ गई, और मृत्यु को प्राप्त लोगों के नाम से पिंड देने की परम्परा चल पड़ी। और अब तो वैदिक ग्रन्थों, आर्ष साहित्यों में भी मरे हुओं के नाम से पिण्ड देने बात खोजकर निकाल पिंडदान के पक्ष में तर्क दी जाने लगी है। वैदिक विद्वान वेदविरोधी इन प्रसंगों को प्रक्षिप्त मानते हैं और कहते हैं कि भोजन से ज्ञानी पितृ लोगों का श्राद्ध करना अत्यन्त उचित है।
पौराणिक मत में आश्विन कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से शुरू होकर अमावस्या तक की अवधि को पितृपक्ष माना जाता है। इस काल में पितरों के लिए श्रद्धा से श्राद्ध करना पुण्यकर्म माना गया है। लेकिन वैदिक मत में मनुष्य को नित्य श्राद्ध करने के लिए कहा गया है। मनुस्मृति के अनुसार नित्य अन्न, जल, दूध अथवा खीर, फल और कन्द मूलों से पितृ नाम ज्ञानी पुरुषों का प्रीतिपूर्वक श्रद्धा से सत्कार करे। मनुस्मृति के नित्यकर्म श्राद्ध के इस विधान में भोजन के पदार्थों में मांस का नाम शामिल नहीं है। स्पष्ट है कि मांस अभक्ष्य होने के कारण ही मांस इसमें शामिल नही किया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि वैदिक ग्रन्थों में श्राद्ध में मांस का प्रयोग सम्बन्धी सभी वर्णन, मन्त्र प्रक्षिप्त हैं, अर्थात सनातनद्रोहियों द्वारा मिला दिए गये हैं।
उल्लेखनीय है कि पञ्च महायज्ञ सामान्य रूप से नित्यकर्म हैं, पञ्च महायज्ञ के अन्तर्गत होने से भी श्राद्ध नित्यकर्म सिद्ध होता है। यह सब कथन उत्सर्गरूप से है। और अपवाद रूप से श्राद्ध नैमित्तिक भी है। अर्थात जो कोई प्रतिदिन भोजनादि सत्कार के साधनों के न मिल सकने से श्राद्ध नहीं कर सकता, अथवा जिसको सत्कार के योग्य पितृजन नित्य नहीं प्राप्त होते हों, उसको साधनों के मिलने और पूज्य पितृजनों की प्राप्ति होने पर श्राद्ध करना चाहिए। पूजा के योग्य पितृ कहने का अर्थ सिर्फ अवस्था में बड़ों का ही नहीं है। क्योंकि मनुस्मृति 2/153 में कहा गया है-
अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः ।
अज्ञं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम् ।।
- मनुस्मृति 2/153
अर्थात -चाहे सौ वर्ष का भी हो, परन्तु जो विद्या विज्ञान से रहित है, वह बालक और जो विद्या विज्ञान का दाता है, उस बालक को भी वृद्ध मानना चाहिए क्योंकि सब शास्त्र आप्त विद्वान् अज्ञानी को बालक और ज्ञानी को पिता कहते हैं ।

मनुस्मृति के इस कथन से सिद्ध है कि ज्ञानवृद्ध का नाम पिता है, किन्तु अवस्थावृद्ध का नाम नहीं। प्रतिदिन भोजनादि सत्कार के साधनों के न मिल सकने अथवा सत्कार के योग्य पितृजन नित्य नहीं प्राप्त होते होने की स्थिति में नैमित्तिक श्राद्ध के लिए समय प्राचीन काल में ही नियत कर दिया गया था। पाणिनीय सूत्र में श्राद्धे शरदः कहा गया है। इस सूत्र का आशय यह है कि ऋतुवाचक शरद शब्द से श्राद्ध अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। यद्यपि शरद ऋतु में अनेक सामान्य व विशेष कार्य होते हैं, तथापि शरद ऋतु में होने वाले श्राद्ध का ही नाम शारदिक कहना उचित होगा। क्योंकि शरद ऋतु के अन्य कामों को शारद कहा जाता है। परन्तु इससे यह भी स्पष्ट नहीं होता कि शरद ऋतु में ही श्राद्ध किया जाये अन्य में न किया जाय अथवा अन्य ऋतु में श्राद्ध नहीं होता। इसके कहने का अभिप्राय केवल यह है कि अन्य ऋतु वाचक शब्दों से ठञ् न हो। जैसे -शैशिरं श्राद्धम। परन्तु किसी अपवाद सूत्र से किसी प्रयोजन से विशेष कर प्रत्यय का विधान करना उस वस्तु, कर्म या भाव का किसी विशेष समय में अधिक प्रचार होने का द्योतक है। जैसे शरद ऋतु में रोग और सूर्य के तेज की विशेषता होती है। इसी कारण शरद शब्द से विभाषा रोगातपयोः- इस पाणिनीय सूत्र द्वारा विशेष प्रत्यय का विधान किया जाता है। इसी से शरद ऋतु में नैमित्तिक श्राद्ध की विशेषता समझनी चाहिए। अर्थात साधनों के ठीक-ठीक न मिलने आदि पर श्राद्ध का नैमित्तिक करना कहा गया है। भोजन करने योग्य वस्तु सर्वोपरि उत्तम पदार्थ, वस्तु सब दूध से बनते हैं। और वर्षा ऋतु के होने से गौ आदि पशुओं के भक्ष्य घासादि की अधिकता से दूध अधिक उत्पन्न होता है। श्राद्ध में खीर आदि पुष्ट वस्तुओं का विधान किया गया है। और अन्नों के बीच उत्तम माने जाने वाले चावल भी वर्षा की अधिकता से शरद ऋतु में ही उत्पन्न होते हैं। इसी कारण आश्विन (क्वार) के महीने में पूर्वकाल से नैमित्तिक श्राद्ध की परिपाटी चलाई गई थी। लेकिन वह वैदिक सत्य परम्परा अब नष्ट हो गयी अर्थात वह श्राद्ध जिस उद्देश्य से पहले चलाया गया था, वैसा उद्देश्य अब नहीं रह गया है। अब कोई वैसे ज्ञानी लोगों को श्राद्ध के लिए न ढूंढता और न परीक्षा करता और न उसके मुख्य प्रयोजन को समझ कर श्राद्ध करता है, बल्कि अब अधिकांशतः विपरीत ही होता है। वर्तमान में श्राद्ध नित्य कर्म के रूप में कम और नैमितिक कर्म के रूप में ही होता ज्यादा दिखाई देता है।

भारतीय परम्परा में प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ करने के पूर्व परमात्मा, माता-पिता, पूर्वजों को नमस्कार अथवा प्रणाम करने की परिपाटी है। यह एक प्रकार से जगतपालक ईश्वर व अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा, कृतज्ञता प्रकट करना है कि ईश्वर की असीम अनुकम्पा से हम अपने इन्हीं पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही इस जीवन का आनंद भोग प्राप्त कर रहे हैं। पूर्वजों अर्थात पितरों के निमित्त विधिपूर्वक श्रद्धा से किए जाने वाले कर्म को श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक है। पौराणिक परम्परा में ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया है। उस पक्ष में भारतीय अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं। यदि किसी कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते हैं, जिसे श्राद्ध कहते हैं। उल्लेखनीय है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में ही ईश्वर के विभिन्न दिव्य गुणों के कारण होने वाले असंख्य नामों पर प्रकाश डालते हुए पिता, पितामह, प्रपितामह और माता शब्दों के अर्थ स्पष्ट कर दिया है। स्वामी दयानन्द ने प्रथम समुल्लास में ही पिता शब्द से ईश्वर की संज्ञा होने के सम्बन्ध में अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है - पा रक्षणे इस धातु से पिता शब्द सिद्ध हुआ है। यः पाति सर्वान् स पिता अर्थात जो सब का रक्षक जैसा पिता अपने सन्तानों पर सदा कृपालु होकर उन की उन्नति चाहता है, वैसे ही परमेश्वर सब जीवों की उन्नति चाहता है, इस से उस का नाम पिता है। पितामह के सम्बन्ध में इसी स्थल पर स्वामी जी ने कहा है - यः पितृणां पिता स पितामहः अर्थात जो पिताओं का भी पिता है, इससे उस परमेश्वर का नाम पितामहः है। इसी प्रकार प्रपितामह शब्द के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि यः पितामहानां पिता स प्रपितामहः जो पिताओं के पितरों का पिता है इससे परमेश्वर का नाम प्रपितामह है। पितृ का अर्थ पिता है, किन्तु भारतीय पुरातन ग्रन्थों में पितर शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है- व्यक्ति के आगे के तीन मृत पूर्वज और मानव जाति के प्रारम्भ या प्राचीन पूर्वज जो एक पृथक लोक के अधिवासी के रूप में माने गये हैं। ऋग्वेद और अथर्ववेद में पितरों के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण अंकित हैं। ऋग्वेद के अनुसार वह सोम जो कि शक्तिशाली होता चला जाता है और दूसरों को भी शक्तिशाली बनाता है, जो तानने वाले से तान दिया जाता है, जो धारा में बहता है, प्रकाशमान (सूर्य) द्वारा जिसने हमारी रक्षा की - वह सोम, जिसकी सहायता से हमारे पितर लोगों ने एक स्थान को एवं उच्चतर स्थलों को जानते हुए गौओं के लिए पर्वत को पीड़ित किया। संसार के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में पितृगण निम्न, मध्यम एवं उच्च तीन श्रेणियों में व्यक्त हुए हैं। वे प्राचीन, पाश्चात्यकालीन एवं उच्चतर कहे गये हैं। वे सभी अग्नि को ज्ञात हैं, यद्यपि सभी पितृगण अपने वंशजों को ज्ञात नहीं हैं। वे कई श्रेणियों में विभक्त हैं। जैसे-अंगिरस, वैरूप, भृगु, नवग्व एवं दशग्व, अंगिरस लोम यम से सम्बन्धित हैं। दोनों को यज्ञ में साथ ही बुलाया जाता है। ऋग्वेद में कहा गया है–जिसकी (इन्द्र की) सहायता से हमारे प्राचीन पितर अंगिरस, जिन्होंने उसकी स्तुति-वन्दना की और जो स्थान को जानते थे, गौओं का पता लगा सके। अंगिरस पितर लोग स्वयं दो भागों में विभक्त थे- नवग्व एवं दशग्व। कई स्थानों पर पितर लोग सप्त ऋषियों की भांति सम्बोधित किये गये हैं और कभी-कभी नवग्व एवं दशग्व भी सप्त ऋषि कहे गये हैं। अंगिरस लोग अग्नि एवं स्वर्ग के पुत्र कहे गये हैं। पितृ लोग अधिकतर देवों, विशेषत: यम के साथ आनन्द मनाते हुए व्यक्त किये गये हैं। पितृ गण सोमप्रेमी व कुश पर बैठने वाले हैं तथा अग्नि एवं इन्द्र के साथ आहुतियाँ लेने आते हैं और अग्नि उनके पास आहुतियाँ ले जाती हैं। जल जाने के उपरान्त मृतात्मा को अग्नि पितरों के पास ले जाती है।

मार्कण्डेय पुराण में ब्रह्मा को आरम्भ में चार प्रकार की श्रेणियाँ देव, असुर, पितर एवं मानव प्राणी, उत्पन्न करने वाला कहा गया है। पौराणिक मान्यतानुसार भाद्रपद की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे वर्ष भर करते हैं। वे चंद्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा में अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाज़े पर जाते हैं और सम्मान पाकर अपनी नई पीढ़ी को आशीर्वाद देते हैं। लौकिक मान्यता है कि शरीर के दाह के उपरान्त मृतात्मा को वायव्य शरीर प्राप्त होता है और वह मनुष्यों को एकत्र करने वाले यम एवं पितरों के साथ हो लेता है। मृतात्मा पितृलोक में चला जाता है और अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह उसे सत्कर्म वाले पितरों एवं विष्णु के पाद-न्यास (विक्रम) की ओर ले जाए। यद्यपि ऋग्वेद में यम की दिवि (स्वर्ग में) निवास करने वाला लिखा गया है, किन्तु निरुक्त के मत से वह मध्यम लोक में रहने वाला देव कहा गया है। अथर्ववेद का कथन है–हम श्रद्धापूर्वक पिता के पिता एवं पितामह की, जो बृहत मध्यम लोक में रहते हैं और जो पृथ्वी एवं स्वर्ग में रहते हैं, पूजा करें। ऋग्वेद में आया है–तीन लोक हैं- दो स्वर्ग एवं पृथ्वी सविता की गोद में हैं, एक मध्यम लोक यमलोक है, जहाँ मृतात्मा एकत्र होते हैं। महान प्रकाशमान (सूर्य) उदित हो गया है, (वह) पितरों का दान है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में अंकित है कि पितर इससे आगे तीसरे लोक में निवास करते हैं। इसका अर्थ यह है कि भुलोक एवं अंतरिक्ष के उपरान्त पितृलोक आता है। बृहदारण्यकोपनिषद् में मनुष्यों, पितरों एवं देवों के तीन लोक पृथक-पृथक् वर्णित हैं। ऋग्वेद में यम स्वयं एक देव कहा गया है, न कि प्रथम मनुष्य जिसने मार्ग बनाया, या वह मनुष्यों को एकत्र करने वाला है या पितरों की संगति में रहता है।

पुराणों में पितरों की अन्य श्रेणियाँ भी हैं, यथा–पितर: सोमवन्त:, पितर: बर्हिषद: एवं पितर: अग्निष्वात्ता:। अन्तिम दो के नाम ऋग्वेद में आये हैं। शतपथ ब्राह्मण ने इनकी परिभाषा इस प्रकार की है–जिन्होंने एक सोमयज्ञ किया, वे पितर सोमवन्त: कहे गये हैं, जिन्होंने पक्व आहुतियाँ (चरु एवं पुरोडास के समान) दीं और एक लोक प्राप्त किया, वे पितर बर्हिषद: कहे गये हैं; जिन्होंने इन दोनों में कोई कृत्य सम्पादित नहीं किया और जिन्हें जलाते समय अग्नि ने समाप्त कर दिया, उन्हें अग्निष्वात्ता: कहा गया है। केवल ये ही पितर हैं। पौराणिक ग्रन्थों के रचयिताओं ने पितरों की श्रेणियों के नामों के अर्थों में परिवर्तन कर दिया है। जैसे नान्दीपुराण (हेमाद्रि) में आया है- ब्राह्मणों के पितर अग्निष्वात्त, क्षत्रियों के पितर बर्हिषद्, वैश्यों के पितर काव्य, शूद्रों के पितर सुकालिन: तथा म्लेच्छों एवं अस्पृश्यों के पितर व्याम हैं।

मनुस्मृति में भी पितरों की कई कोटियाँ दी गई हैं और चारों वर्णों के लिए क्रम से सोमपा:, हविर्भुज:, आज्यपा: एवं सुकालिन: पितरों के नाम बतला दिये गये हैं। आगे चलकर मनु ने कहा है कि ब्राह्मणों के पितर अनग्निदग्ध, अग्निदग्ध, काव्य बर्हिषद्, अग्निष्वात्त एवं सौम्य नामों से पुकारे जाते हैं। इन नामों एवं इनकी परिभाषा के लिए मत्स्य पुराण में भी उल्लेख है। शातातपस्मृति में पितरों की बारह कोटियों या विभागों के नाम अंकित हैं, यथा–पिण्डभाज: -तीन, लेपभाज: -तीन, नान्दीमुख - तीन एवं अश्रुमुख - तीन। यह पितृविभाजन दो दृष्टियों से हुआ है। वायु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, पद्म पुराण, विष्णुधर्मोत्तर एवं अन्य पुराणों में पितरों के सात प्रकार आये हैं, जिनमें तीन अमूर्तिमान हैं और चार मूर्तिमान। वहाँ पर उनका और उनकी संतति का विशद वर्णन हुआ है। स्कन्द पुराण ने पितरों की नौ कोटियाँ दी है। अग्निष्वात्ता:, बर्हिषद:, आज्यपात्, सोमपा:, रश्मिपा:, उपहूता:, आयन्तुन:, श्राद्धभुज: एवं नान्दीमुखा:। इस सूची में नये एवं पुराने नाम सम्मिलित हैं। मनुस्मृति में मनु ने कहा है कि ऋषियों से पितरों की उदभूति हुई, पितरों से देवों एवं मानवों की तथा देवों से स्थावर एवं जंगम के सम्पूर्ण लोक की उदभूति हुई।
पुरातन ग्रन्थों में पितर को देवों से भिन्न बताते हुए कहा गया है कि पितर लोग देवों से भिन्न थे। ऋग्वेद के पंचजना मम होत्रं जुषध्वम् में प्रयुक्त शब्द पंचजना: एवं अन्य वचनों के अर्थ के आधार पर ऐतरेय ब्राह्मण ने व्याख्या की है। वे पाँच कोटियाँ हैं- अप्सराओं के साथ गन्धर्व, पितृ, देव, सर्प एवं राक्षस। अथर्ववेद में देव, पितृ एवं मनुष्य उसी क्रम में उल्लिखित हैं। प्राचीन वैदिक उक्तियाँ एवं व्यवहार देवों तथा पितरों में स्पष्ट भिन्नता प्रकट करते हैं। तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है कि देवों एवं मनुष्यों ने दिशाओं को बाँट लिया, देवों ने पूर्व लिया, पितरों ने दक्षिण, मनुष्यों ने पश्चिम एवं रुद्रों ने उत्तर। सामान्य नियम यह है कि देवों के यज्ञ मध्याह्न के पूर्व में आरम्भ किये जाते हैं और पितृयज्ञ अपरान्ह्न में। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार पितर लोग अपने दाहिने कंधे पर (और बायें बाहु के नीचे) यज्ञोपवीत धारण करके प्रजापति के यहाँ पहुँचे, तब प्रजापति ने उनसे कहा- तुम लोगों को भोजन प्रत्येक मास (के अन्त) में (अमावस्या को) मिलेगा, तुम्हारी स्वधा विचार की ते­ज़ी होगी एवं चन्द्र तुम्हारा प्रकाश होगा। देवों से उसने कहा- यज्ञ तुम्हारा भोजन होगा एवं सूर्य तुम्हारा प्रकाश।
कौशिकसूत्र में देव-कृत्यों एवं पितृ कृत्यों की विधि के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि देव-कृत्य करने वाला यज्ञोपवीत को बायें कंधे एवं दाहिने हाथ के नीचे रखता है एवं पितृ-कृत्य करने वाला दायें कंधे एवं बायें हाथ के नीचे रखता है। देव-कृत्य पूर्व की ओर या उत्तर की ओर मुख करके आरम्भ किया जाता है किन्तु पितृ-यज्ञ दक्षिणाभिमुख होकर आरम्भ किया जाता है। देव-कृत्य का उत्तर-पूर्व (या उत्तर या पूर्व) में अन्त किया जाता है और पितृ-कृत्य दक्षिण-पश्चिम में समाप्त किया जाता है। पितरों के लिए एक कृत्य एक ही बार किया जाता है, किन्तु देवों के लिए कम से कम तीन बार या शास्त्रानुकुल कई बार किया जाता है। प्रदक्षिणा करने में दक्षिण भाग देवों की ओर किया जाता है और बायाँ भाग पितरों के विषय में किया जाता है। देवों को हवि या आहुतियाँ देते समय स्वाहा एवं वषट् शब्द उच्चारित होते हैं, किन्तु पितरों के लिए इस विषय में स्वधा या नमस्कार शब्द उच्चारित किया जाता है। पितरों के लिए दर्भ जड़ से उखाड़कर प्रयुक्त होते हैं किन्तु देवों के लिए जड़ के ऊपर काटकर। बौधायन श्रौतसूत्र ने एक स्थल पर इनमें से कुछ का वर्णन किया है। स्वयं ॠग्वेद ने देवों एवं पितरों के लिए ऐसे शब्दान्तर को व्यक्त किया है। शतपथब्राह्मण ने देवों को अमर एवं पितरों को मर कहा है।
यद्यपि देव एवं पितर पृथक कोटियों में रखे गये हैं, तथापि पितर लोग देवों की कुछ विशेषताओं को अपने में रखते हैं। ऋग्वेद में पितर को सोम पीने वाला बताते हुए कहा गया है कि पितरों ने आकाश को नक्षत्रों से सुशोभित किया (नक्षत्रेभि: पितरो द्यामपिंशन्) और अंधकार रात्रि में एवं प्रकाश दिन में रखा। पितरों को गुप्त प्रकाश प्राप्त करने वाले कहते हुए उन्हें उषा को उत्पन्न करने वाले द्योतित किया गया है। यहाँ पितरों को उच्चतम देवों की शक्तियों से समन्वित माना गया है। भाँति-भाँति के वरदानों की प्राप्ति के लिए पितरों को श्रद्धापूर्वक बुलाया गया है और उनका अनुग्रह कई प्रकार से प्राप्य कहा गया है। पितरों से सुमति एवं सौमनस (अनुग्रह) प्राप्त करने की बात कही गयी है। उनसे कष्टरहित आनन्द देने एवं यजमान (यज्ञकर्ता) को एवं उसके पुत्र को सम्पत्ति देने के लिए प्रार्थना की गयी है। ऋग्वेद एवं अथर्ववेद ने सम्पत्ति एवं शूर पुत्र देने को कहा है। अथर्ववेद ने कहा है–वे पितर जो वधु को देखने के लिए एकत्र होते हैं, उसे सन्ततियुक्त आनन्द दें। वाजसनेयी संहिता में प्रसिद्ध मंत्र यह है–हे पितरों, इस पत्नी के गर्भ में आगे चलकर कमलों की माला पहनने वाला बच्चा रखो, जिससे वह कुमार पूर्ण विकसित हो जाए, जो इस समय कहा जाता है, जब कि श्राद्धकर्ता की पत्नी तीन पिण्डों में बीच का पिण्ड खा लेती है। पुराणों में पितरों के मूल एवं प्रकारों के विषय में विशद वर्णन मिलता है। वायुपुराण ने पितरों की तीन कोटियाँ बताई हैं; काव्य, बर्हिषद एवं अग्निष्वात्त्। पुन: वायु पुराण ने तथा वराह पुराण, पद्म पुराण एवं ब्रह्मण्ड पुराण ने सात प्रकार के पितरों के मूल पर प्रकाश डाला है, जो कि स्वर्ग में रहते हैं, जिनमें चार तो मूर्तिमान् हैं और तीन अमूर्तिमान्। शतातपस्मृति में बारह पितरों के नाम दिये हैं- पिण्डभाज:, लेपभाज:, नान्दीमुखा: एवं अश्रुमुखा:।
पुरातन साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि पित्तर शब्द व्यक्ति के समीपवर्ती, मृत पुरुष पूर्वजों के लिए प्रयुक्त हुआ है। अत: तीन पीढ़ियों तक वे (पूर्वजों को) नाम से विशिष्ट रूप से व्यंजित करते हैं, क्योंकि ऐसे बहुत से पितर हैं, जिन्हें आहुति दी जाती है। शतपथ ब्राह्मण ने पिता, पितामह एवं प्रपितामह को पुरोडाश अर्थात रोटी देते समय के सूक्तों का उल्लेख करते हुए कहा है कि कर्ता इन शब्दों को कहता है–हे पितर लोग, यहाँ आकर आनन्द लो, बैलों के समान अपने-अपने भाग पर स्वयं आओ। एक सूक्त में कहा है–यह भात का पिण्ड तुम्हारे लिये और उनके लिये है जो तुम्हारे पीछे आते हैं। शतपथब्राह्मण में तीन पूर्व पुरुषों को स्वधाप्रेमी कहा गया है। श्राद्धप्रकाश में कहा गया है कि पिता एवं अन्य पूर्वजों को ही श्राद्ध का देवता कहा जाता है, न कि वसु, रुद्र एवं आदित्य को, क्योंकि इनके गोत्र नहीं होते और पिता आदि वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में सिर्फ ध्यान के लिए वर्णित हैं। श्राद्धप्रकाश व ब्रह्म पुराण के अनुसार कर्ता को ब्राह्मणों से यह कहना चाहिए कि मैं कृत्यों के लिए पितरों को बुलाऊँगा और जब ब्राह्मण ऐसी अनुमति दे देते हैं, तो उसे वैसा करना चाहिए, अर्थात् पितरों का आहावान करना चाहिए, यह निर्देश देता है कि यहाँ पर पितरों का तात्पर्य है देवों से, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों से तथा मानवों से, यथा–कर्ता के पिता एवं अन्यों से। वायु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण एवं अनुशासन पर्व ने उपर्युक्त पितरों एवं लौकिक पितरों (पिता, पितामह एवं प्रपितामह) में अन्दर दर्शाया है।
पुरातन ग्रन्थों के अनुसार लैकिक पित्तरों को भी आवाहन, पूजन, नमस्कार के उपरान्त तर्पण किया जाता है। पौराणिक मान्यतानुसार आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक पन्द्रह दिन पितृपक्ष के नाम से जाना जाता है और इन पन्द्रह दिनों में लोग अपने पितरों अर्थात पूर्वजों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं। श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ अर्थात जो श्रद्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है। भावार्थ है प्रेत और पित्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।
भारतीय संस्कृति में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं, जिसमें हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है |प्रिय के अतिरेक की अवस्था प्रेत है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है। पितृपक्ष भर में किये जाने वाले तर्पण से वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव अर्थात जौ तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। पन्द्रह दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।
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