शाश्वत प्रेम का प्रतीक है तीज का व्रत

शाश्वत प्रेम का प्रतीक है तीज का व्रत

मार्कण्डेय शारदेय (ज्योतिष एवं धर्मशास्त्र विशेषज्ञ)
जब हम तीज की पूजा के मूल तत्त्व की बात करते हैं तो हमारे समक्ष शिव-पार्वती का अथाह, अद्वितीय प्रेम ही प्रकट होता है।एकतरफा प्रेम नहीं, जिसमें स्वार्थ-ही-स्वार्थ होता है।मैथिलीशरण गुप्त की ऊर्मिला कहती है-
‘दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है’।
यही है सात्त्विक एवं शाश्वत प्रेम की पहचान।यही है लोहे और चुम्बक का आकर्षण, दूध-पानी का मिलाप, नदी-सागर का आलिंगन।एक-दूजे के बिना कुछ भी नहीं।एक-दूसरे में समाए, कहियत भिन्न न भिन्न, अर्धनारीश्वर का प्रेमदर्शन।यह है दाम्पत्य जीवन की वैचारिक एकता।यही है ‘त्वमेव सर्वम्’ की पराकाष्ठा।
शिव-शिवा में अभेद है, इसलिए शिवा के बिना शिव शव हैं तो शिव के बिना शिवा निराधार, निरुपाय।इसी तथ्य का उद्घाटन यह श्लोक करता है-
‘निर्गुणः सगुणश्चेति शिवो ज्ञेयः सनातनः।
निर्गुणः प्रकृतेः अन्यः सगुणः सकलः स्मृतः’।।
यानी; भगवान महेश्वर निराकार और साकार भी हैं।प्रकृति (शक्ति, माया, पार्वती) से रहित निर्गुण तथा प्रकृतियुक्त सगुण।

यही शिवशक्ति का संयोग संसार का कारण, तात्त्विक प्रेम का पर्याय एवं दाम्पत्य का सूत्र है।दोनों का प्रेम कब से रहा, कैसे रहा; जानना, कहना असम्भव है।कारण कि ये देश-काल से परे हैं।हाँ; पौराणिक आख्यानों में पहला मिलन दक्षपुत्री के रूप में सती से हुआ।पिता दक्ष द्वारा पति-परमेश्वर का अपमान जान उन्होंने यज्ञाग्नि में स्वयं को आहुत कर दिया।परिणाम यह कि शक्तिहीन शिव विरक्त हो गए।इधर देवकार्य में बाधाएँ आने लगीं तो देवों की प्रार्थना पर गिरिराज के घर पार्वती रूप में वही आद्या शक्ति सती अवतरित हुईं।उधर शिव साधना में, इधर गिरिनन्दिनी भी। ‘हरितालिका व्रत’ की उपज पार्वती की उसी प्रेमसाधना से हुई।बिघ्न-बाधाओं का जोर सबके साथ होता है, इनके साथ भी रहा।पर; शाश्वत, निश्छल, अनन्य प्रीति एक-दूजे की हो ही गई।
यही कारण है कि जब शिव की पूजा होती है तो शिवा भी पूजी जाती हैं।इसी तरह जहाँ शिवा की पूजा होती है, वहाँ शिव भी पूजे जाते हैं।तीज गौरी की तिथि है, पर इसमें भी दोनों की साथ-साथ उपासना-आराधना होती है। यह सौभाग्य-वृद्धि के लिए है, शिव-पार्वती के समान पारस्परिक प्रेम की प्रगाढ़ता के लिए है।हमारी संस्कृति इसी रूप में इस व्रत को स्थान देती आई है।

सविधि हरितालिका-व्रतकथा

भादो के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जानेवाला सुहागिनों का महापर्व तीज को हरितालिका भी कहते हैं।इस दिन स्त्रियाँ सौभाग्य-वृद्धि के लिए शिवपार्वती की पूजा करती हैं और कठोर निर्जल उपवास के साथ रात्रिजागरण भी करती हैं।यह व्रत सर्वप्रथम पार्वती ने शिव को पाने के लिए किया था।
इस बार यह व्रत 30, अगस्त 022 (मंगलवार) को है।यों तो तृतीया तिथि 29 अगस्त (सोमवार) को ही दुपहर 2.38 से प्रारम्भ हो जाती है और अगले दिन दुपहर 2.32 तक ही रहती है।परन्तु; चतुर्थी-युक्त तृतीया को गणेशबिद्धा कहते हैं, जो उत्तम है।पुनः हस्त नक्षत्र का योग भी रात्रि 11.52 तक है।‘तृतीया हस्तसंयुता’ इस विधान से भी यही दिन सर्वोत्तम है।

पूजाविधि :

प्रातः स्नान आदि कर यथाशक्ति उपवास के साथ भक्तिपूर्ण पूजन- सामग्री का संग्रह कर लें।यथासमय पूजा के पहले मण्डप को सजाकर कलश में रोली, अक्षत, पुष्प, दूब, पान, सुपारी, आम का पल्लव डालकर उसके ऊपर चावल से भरा पात्र रखें।इसके बाद कपड़ा या मौली लपेटकर नारियल रखें।उसके आगे सुपारी में मौली लपेटकर अग्रपूज्य गणेश बनाकर हल्दी-रोली से बने स्वस्तिक पर रखें।मण्डप के दाईं ओर घी का अखण्ड दीप रखें।जलपात्र के साथ सारी पूजासामग्री पास रख आसन पर बैठ जाएँ।
यह सुहागिनों के लिए ही विशेष व्रतोपवास है, इसलिए यथासाध्य अपना सिंगार करके ही बैठें। परन्तु; केश खुला न रखें।आसन पर बैठकर शुद्धि के लिए अपने तथा आसन पर जल छींट लें।दीप जलाकर उसके पास रोली, अक्षत, पुष्प रखकर ‘ऊँ दीपाय नमः’ कहकर प्रणाम कर लें।
अब हाथ में रोली, अक्षत, पुष्प, सुपारी, सिक्का और जल लेकर संकल्प करें— ‘ऊँ विष्णुः विष्णुः विष्णुः नमः परमात्मने अद्य मासानाम् उत्तमे भाद्रपद- मासे शुक्ले पक्षे तृतीयायां तिथौ मंगलवारे ...गोत्रे उत्पन्नाहं ....नाम्नी अहं सर्वपापक्षय- पूर्वक- सप्तजन्म- अतिसौभाग्य- अवैधव्य- पुत्र-पौत्रादि- वृद्धि- सकल-भोगान्तर- शिवलोक- महित्व- कामनया हरितालिका- व्रत-निमित्तं यथाशक्ति जागरण- पूर्वक- उमामहेश्वर- पूजनं करिष्ये’।
उक्त संकल्प-वाक्य बोलने के बाद संकल्प-सामग्री आगे रख दें।अब ‘श्रीगणेशाय नमः’ इस नाममन्त्र से गणेशजी पर जल, रोली, अक्षत, सिन्दूर, फूल चढ़ाकर धूप, दीप दिखाएँ तथा हाथ धोकर प्रसाद चढ़ाएँ।फिर जल देकर प्रणाम कर लें।इसी तरह ‘ऊँ वरुणाय नमः’ इस नाममन्त्र से गणेशजी के समान ही कलश का पूजन कर प्रणाम करें।
अब शिव-पार्वती का ध्यान करते बोलें-
‘मन्दार- मालाकुलितालकायै कपालमालांकित- शेखराय।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय’।।
अब मण्डप में रखी गई बालू, मिट्टी, धातुमयी व चित्रमयी जो सम्भव हो, उस प्रतिमा की पूजा ‘ऊँ साम्ब-सदाशिवाय नमः’ इस नाममन्त्र से करें।भगवती को सुहाग- सामग्री भी अर्पित करें।फिर प्रार्थना करें-
‘शिवायै शिवरूपिण्यै मंगलायै महेश्वरि!
शिवे! सर्वार्थदे! देवि! शिवरूपे! नमोsस्तु ते।।
शिवरूपे! नमस्तुभ्यं शिवायै सततं नमः।
नमस्ते ब्रह्मरूपिण्यै जगद्-धात्र्यै नमोनमः।।
संसार- भय- संत्रस्ता त्राहि मां सिंहवाहिनि!
येन कामेन भो देवि पूजितासि महेश्वरि!!
राज्य- सौभाग्यं मे देहि प्रसन्ना भव पार्वति!!

हरितालिका- व्रतकथा :

एकबार कैलास के शिखर पर पार्वती और महेश्वर विहार कर रहे थे।तभी गिरिनन्दिनी पार्वती ने भगवान कहा, ‘प्रभो! यदि आप मुझपर प्रसन्न हों तो कोई ऐसा व्रत बताएँ, जो कम परिश्रम से भी अधिक फल देनेवाला हो।वह गोपनीय से गोपनीय हो तो भी मुझपर कृपा कर अवश्य बताएँ।पुनः यह भी बताएँ कि मेरे किस आचरण से आप-जैसे संसार के स्वामी ने मुझे अपनी पत्नी का स्थान दिया’।
तब शिव ने कहा, देवि! सुनिए; आप मेरी प्रेयसी हैं, इसलिए मैं आपको सर्वोत्तम व्रत बता रहा हूँ, जिसके अनुष्ठान करने से ही सारे पाप दूर हो जाते हैं।उसका नाम ‘हरितालिका’ है।आपने इसी के आचरण से मुझे पतिरूप में पाया है।यों तो आपने बचपन से ही मेरे प्रति प्रेम-भक्ति से तप करना शुरू कर दिया था।आप पर्वतराज हिमालय की पुत्री हैं, जहाँ की प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है।वहाँ देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण भी विचरण करते हैं।वैसे रमणीक स्थान में आपने बारह वर्षों तक धूमपान कर, चौंसठ वर्षों तक सूख पत्ते खाकर, माघ की ठंड में जल में रहकर, सावन में खुले में रहकर तथा अन्न-जल का त्याग कर तपस्या की थी।आपका घोर तप देख पिता गिरिराज को चिन्ता खाई जा रही थी कि मैं इसका विवाह किससे करूँ! तभी देवर्षि नारद पधारे।पर्वतराज ने आतिथ्य-सत्कार कर आने का कारण पूछा।तब उन्होंने कहा कि मैं भगवान विष्णु द्वारा प्रेषित हूँ।वस्तुतः उनसे बढ़कर ब्रह्मा, शिव, इन्द्र आदि देवताओं में से भी कोई नहीं है।उन्होंने स्वयं आपकी कन्या की याचना की है।मेरा भी मत है कि श्रीहरि और गिरिनन्दिनी की जोड़ी अच्छी होगी, इसलिए आप विवाह की स्वीकृति दे दें।
तब गिरिराज ने कहा कि यदि श्रीविष्णु की यही इच्छा और अपकी सहमति है तो मैं अवश्य करूँगा।नारदजी वाग्दान होते वैकुण्ठ गए और श्रीहरि से पर्वतराज का संकल्प बता दिया।इधर पर्वतराज पुत्री से जाकर बोले कि मैंने तेरा विवाह विष्णुजी से निश्चित कर दिया है।यह सुन आप बहुत दुःखी हुईं।आप रोती-बिलखती अपनी सखी के पास पहुँचीं।उसने कारण पूछा तो आपने बताया कि मैंने स्वयं को भगवान शंकर को समर्पित कर दिया है।ऐसे में मैं जान दे दूँगी।
सखी एक योजना बनाकर आपको एक दुर्गम स्थान में ले गई।आपको घर और पास-पड़ोस में न पाकर दुःखी पिता छान मारने लगे, पर पता नहीं चला।और इधर आपने नदी-किनारे गुफा में रहकर उपवासपूर्वक रात्रि में बालू की पार्वती-सहित शिव की प्रतिमा बनाकर पूजा की।उस दिन यही भाद्रपद शुक्ल तृतीया तिथि के साथ हस्त नक्षत्र भी था।आपकी पूजा से मैं शंकर प्रसन्न हो प्रकट हुआ और वरदान माँगने को कहा।तब आपने कहा कि यदि प्रसन्न हैं तो पत्नीरूप में मुझे स्वीकारें।मैं ‘तथास्तु’ कह अन्तर्धान हो गया।
हे पार्वति! सुबह होते आपने प्रतिमा को नदी में विसर्जित कर पारण किया।इसके बाद एक पेड़ की छाँव में सखी के साथ विश्राम कर रही थीं कि खोजते-खोजते गिरिराज वहाँ आ गए। उन्होंने आपको देख रोते-बिलखते अंक से लगा लिया और कहा कि इस भयंकर जंगल में यहाँ क्यों आ गई? तब आपने कहा कि मैंने शिवजी का वरण किया था और आप श्रीहरि से विवाह चाह रहे थे, इसलिए ऐसा करना पड़ा।पिता बात मानकर घर लाए और आगे मुझ शिव से ब्याह दिया।यही इस व्रतराज का प्रभाव है।इसे हरितालिका इसलिए कहा गया कि सखी द्वारा आप हरी गई थीं।
तब आपने कहा कि इस व्रत की विधि और फल बताएँ।इसपर मैंने कहा सौभाग्य चाहनेवाली स्त्रियों को तीज के दिन विधिपूर्वक हम दोनों की केले के पौधे आदि से निर्मित, सुसज्जित एवं सुरभित मण्डप में पूजा करनी चाहिए।इस दिन यथाशक्ति अन्न-जल कुछ भी ग्रहण नहीं करना चाहिए।सुबह में प्रतिमा-विसर्जन कर अन्नदान कर पारण करना चाहिए।इस तरह करने से हजारों अश्वमेध एवं सैकड़ों वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है’।
(लेखक  की पुस्तक ‘सांस्कृतिक तत्त्वबोध’ से)
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