छः लक्षणों वाला होता है आतताई
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
एतान्त हन्तुमिच्छामि घतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।। 35।।
प्रश्न-अर्जुन ने यह क्यों कर कहा कि मुझे मारने पर भी मैं इन्हें मारना नहीं चाहता; क्योंकि दोनों सेनाओं में स्थित सम्बन्धियों में से जो अर्जुन के पक्ष के थे, उनके द्वारा तो अर्जुन के मारे जाने की कोई कल्पना ही नहीं हो सकती ?
उत्तर-इसीलिये अर्जुन ने ‘घ्नतः’ और ‘अपि’ शब्दों का प्रयोग किया है। उनका यह भाव है कि मेरे पक्षवालों की तो कोई बात ही नहीं है; परन्तु जो विपक्ष में स्थित सम्बन्धी हैं, वे भी जब मैं युद्ध से निवृत्त हो जाऊँगा, तब सम्भवतः मुझे मारने की इच्छा नहीं करेंगे। क्योंकि वे सब राज्य के लोभ से ही युद्ध करने को तैयार हुए हैं; जब हम लोग युद्ध से निवृत्त होकर राज्य की आकांक्षा ही छोड़ देंगे तब तो मारने का कोई कारण ही नहीं रह जायगा। परन्तु कदाचित् इतने पर भी उनमें से कोई मारना चाहेंगे तो उन मुझे मारने की चेष्टा करने वालों को भी मैं नहीं मारूँगा।
प्रश्न-तीनों लोकों के राज्य के लिये भी नहीं, फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है। इस कथन का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि पृथ्वी के राज्य और सुखों की तो बात ही कौन-सी है, इनको मारने पर कहीं त्रिलोकी का निष्कण्टक राज्य मिलता हो तो उसके लिये भी मैं इन आचार्यादि आत्मीय स्वजनों को नहीं मारना चाहता।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याजर्नादन।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ।। 36।।
प्रश्न-धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-अर्जुन कहते हैं कि विपक्ष में स्थित इन धृतराष्ट्र पुत्रों को और उनके साथियों को मारने से इस लोक और परलोक में हमारी कुछ भी इष्टसिद्धि नहीं होगी और जब इच्छित वस्तु ही नहीं मिलेगी तब प्रसन्नता तो होगी ही कैसे। अतएव किसी दृष्टि से भी मैं इनको मारना नहीं चाहता।
प्रश्न-स्मृतिकारों ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है-
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन!
नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन।
(मनु0 8 । 350-51)
‘अपना अनिष्ट करने के लिये आते हुए आततायी को बिना विचारे ही मार डालना चाहिए। आततायी के मारने से मारने वालों को कुछ भी दोष नहीं होता।’
वसिष्ठ स्मृति में आततायी के लक्षण इस प्रकार बतलाये गये हैं-
अग्निदो गदरवैश्व शस्त्रपाणिर्धनापहः।
क्षेत्रदारापहर्ता च षडेते ह्याततायिन।।
(3 । 19)
‘आग लगाने वाला, विष देेने वाला, हाथ में शस्त्र लेकर मारने को उद्यत, धन हरण करने वाला, जमीन छीनने वाला और स्त्री का हरण करने वाला ये छहों ही आततायी हैं।’
दुर्योधनादि में आततायी के उपर्युक्त लक्षण पूरे पाये जाते हैं। लाक्षा-भवन में आग लगाकर उन्होंने पाण्डवों को जलाने की चेष्टा की थी, भीमसेन के भोजन में विष मिला दिया था, हाथ में शस्त्र लेकर मारने को तैयार थे ही। जूए में छल करके पाण्डवों का समस्त धन और सम्पूर्ण राज्य हर लिया था, अन्यायपूर्वक द्रौपदी को सभा में लाकर उसका घोर अपमान किया था और जयद्रथ उन्हें हरकर ले गया था। इस अवस्था में अर्जुन ने यह कैसे कहा कि न आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा?
उत्तर-इसमें कोई सन्देह नहीं कि स्मृतिकारों के मत में आततायियों का वध करना दोष नहीं माना गया है और यह भी निर्विवाद सत्य है कि दुर्योधनादि आततायी भी थे। परन्तु किन्हीं स्मृतिकार ने एक विशेष बात यह कही है।
‘स एव पापिष्ठतमो यः कुर्यात कुलनाशनम्।’
जो अपने कुल का नाश करता है, वह सबसे बढ़कर पापी हैं।’
इन वाक्यों को सामान्य आज्ञा की अपेक्षा कीं बलवान् समझकर यहाँ अर्जुन यह कह रहे हैं कि ‘धृतराष्ट्र के पुत्र आततायी होने पर भी जब हमारे कुटुम्बी हैं, तब इनको मारने में तो हमें पाप ही होगा; और लाभ तो किसी प्रकार भी नहीं है। ऐसी अवस्था में इन्हें मारना नहीं चाहता।’ अर्जुन ने इस अध्याय के अन्त तक इसी बात का स्पष्टीकरण किया है।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।। 37।।
प्रश्न-इस श्लोक का क्या भाव है?
उत्तर-इस श्लोक में ‘तस्मात्’ पद का प्रयोग करके अर्जुन यह कह रहे हैं कि मेरी जैसी स्थिति हो रही है और युद्ध न करने के पक्ष में अब तक जो कुछ कहा है तथा मेरे विचार में जो बातें आ रही हैं, उन सबसे यही निश्चय होता है कि दुर्योधनादि बन्धुओं को मारना हमारे लिये सर्वथा अनुचित हैं कुटुम्ब को मारकर हमें इस लोक या परलोक में किसी तरह का भी कोई सुख मिले, ऐसी जरा भी सम्भावना नहीं है। अतएव मैं युद्ध नहीं करना चाहता।’
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।। 38।।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्य˜र्जनार्दन ।। 39।।
प्रश्न-इन दोनों श्लोकांे का स्पष्ट भाव क्या है।
उत्तर-यहाँ अर्जुन के कथन का यह भाव है कि अवश्य ही दुर्योधनादि का यह कार्य अत्यन्त ही अनुचित है, परन्तु उनके लिये ऐसा करना कोई बड़ी बात नहीं है; क्योंकि लोभ ने उनके अन्तःकरण के विवेक को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है। इसलिये न तो वे यह देख पाते हैं कि कुल के नाश से कैसे-कैसे अनर्थ और दुष्परिणाम होते हैं और न उन्हें यही सूझ पड़ता है कि दोनों सेनाओं में एकत्रित बन्धु-बान्धवों और मित्रों का परस्पर वैर करके एक-दूसरे को मारना कितना भयंकर पाप है। पर हम लोग जो उनकी भाँति लोभ से अन्धे नहीं हो रहे हैं और कुलनाश से होने वाले दोष को भलीभाँति जानते हैं-जान-बूझकर घोर पाप में क्या प्रवृत्त हो। हमें तो विचार करके इससे हट ही जाना चाहिये।
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