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उमड़ के घुमड़ के

उमड़ के घुमड़ के

मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"
गरज के लरज के
आव ह
श्यामल रूप देखा के
तन मन के हर्षाव ह
न जने काहे बरस न 
पाव ह
टप टप हे चुऐत पसीना
मुश्किल हो रहल हे अब जीना
रह रह के काहे खाली 
बिजली कड़काव ह
खेत के छाती फटल हे
खरिहान के भी पेट सटल हे
सावन बीत रहल हे
बहुरिया के मन खाली तरसाव ह।
....मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"।
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