गठबंधन पर उद्धव का तर्क

गठबंधन पर उद्धव का तर्क

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
शिवसेना नेता एवं महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ महा विकास अघाड़ी गठबंधन को लेकर पिछले दिनों जो तर्क दिया है, उसमें दम प्रतीत होता है। वे कहते हैं कि गठबंधन का प्रयोग गलत नहीं था। राजनीतिक विश्लेषकों का भी यही मानना है कि शिवसेना ने गठबंधन करके कोई गलती नहीं की थी लेकिन भाजपा की कूटनीति का शिकार होेकर गठबंधन बिखर गया। इसके पीछे तर्क है कि राज्य में पहले शिवसेना ही प्रमुख विपक्षी पार्टी थी लेकिन भाजपा के साथ जुड़ने के बाद वो लगातार कमजोर हुई है। यहां तक कि गठबंधन सरकार के ढाई साल में भी भाजपा ने उसकी लोकप्रियता कम करने का प्रयास किया। उद्धव ठाकरे के तर्क पर विचार करना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उनकी पार्टी के ही नेता एकनाथ शिंदे, जो मौजूदा समय में भाजपा की मजबूत बैसाखी से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं, ने यही तर्क देकर शिवसेना में बगावत की थी कि उद्धव ठाकरे ने बेतुका और बेमेल गठबंधन करके शिवसेना को हानि पहुंचाई है। उद्धव का कहना है कि कथित बेमेल गठबंधन की अपेक्षा समान विचारधारा वाली भाजपा के साथ गठबंधन करके भी शिवसेना को नुकसान ही हुआ था और वो नुकसान इससे कहीं ज्यादा था।

शिवसेना अध्यक्ष और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने 27 जुलाई को कहा कि उनके नेतृत्व में महा विकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन का प्रयोग गलत नहीं था और लोगों ने उसका स्वागत किया था। शिवसेना के मुखपत्र सामना को दिए साक्षात्कार के दूसरे भाग में ठाकरे ने कहा कि वह महाराष्ट्र में न केवल स्थानीय निकाय बल्कि विधानसभा चुनाव भी चाहते हैं। उन्होंने दावा किया कि शिवसेना का मुख्यमंत्री फिर से होगा और वह पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य का दौरा करेंगे। ठाकरे ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उन लोगों को सब कुछ दे रही है जो दूसरी पार्टियों से आए हैं। उन्होंने कहा कि भाजपा ने मुख्यमंत्री (शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे) पद से लेकर नेता प्रतिपक्ष (जो अभी राकांपा के अजित पवार के पास है) का पद भी ऐसे लोगों को दिया है। उन्होंने कहा, “दिल्ली शिवसेना से शिवसेना को लड़ाना चाहती है और मराठी भाषी लोगों को बांटना चाहती है। अगर वर्तमान शासक विपक्ष से डरते हैं तो यह उनकी अक्षमता है। लोकतंत्र में कोई भी दल स्थायी विजेता नहीं होता।” ठाकरे ने कहा कि लोगों ने एमवीए के प्रयोग का स्वागत किया था और तीन दलों का यह गठबंधन इसलिए करना पड़ा क्योंकि भाजपा ने उनसे किया वादा नहीं निभाया था। सामना के कार्यकारी संपादक और राज्यसभा सदस्य संजय राउत को दिए साक्षात्कार में ठाकरे ने कहा, “शिवसेना का फिर से मुख्यमंत्री होगा। मैं पार्टी के आधार और कार्यकर्ताओं के विस्तार के लिए काम करूंगा। मैं अगस्त से राज्य का दौरा शुरू करूंगा। मैं चाहता हूं कि अधिक से अधिक लोग पार्टी के सदस्य बनें।” उन्होंने कहा, “मैंने भाजपा से 2019 में क्या मांगा था? ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री का पद और इस पर सहमति बनी थी। यह पद मेरे लिए नहीं था। मैंने (अपने पिता और शिवसेना के संस्थापक) बालासाहेब से वादा किया था कि मैं शिवसेना के नेता को मुख्यमंत्री बनाऊंगा। मेरा वादा अब भी अधूरा है।” ठाकरे ने कहा कि उन्हें मुख्यमंत्री का पद एक चुनौती के रूप में स्वीकार करना पड़ा।

ठाकरे की बात में दम है। इसके लिए हमें अतीत में झांकना पड़ेगा। पिछले ढाई साल के दौरान देवेंद्र फडणवीस उद्धव ठाकरे पर लगातार हमले करते रहे हैं। कभी भ्रष्टाचार के आरोप, कभी कोविड के कुप्रबंधन और कभी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को हवा देकर वे उद्धव का संकट बढ़ाते रहे। 2019 के चुनाव में बीजेपी और शिव सेना साथ चुनाव लड़े थे और बहुमत हासिल किया था। बीजेपी का कहना है कि गठबंधन इस शर्त पर हुआ था कि देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। लेकिन शिव सेना का कहना था कि दोनों पार्टियों के बराबर मंत्री बनाए जाएंगे और मुख्यंमत्री पद का बँटवारा भी ढाई-ढाई साल के लिए होगा। बीजेपी इससे मुकर गई। लिहाजा उसने एनसीपी और कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बना ली। तब से देवेंद्र फडणवीस बोल रहे हैं कि उनके साथ धोखा हुआ है। एक इंटरव्यू में उन्होंने यहां तक कहा कि उन्हें लगता ही नहीं है कि वे मुख्यंमत्री नहीं रहे। तब से उन्होंने सत्ता में वापसी की कई कोशिश की है। इनमें से एक कोशिश एनसीपी के अजित पवार के एक गुट के साथ सरकार बनाने की थी। लेकिन ये सरकार दो-ढाई दिन तक ही चल पाई। इसके बाद भी उन्होंने कुछ और प्रयास किए। उन्होंने ये कहना शुरू किया कि बीजेपी को महाविकास अघाड़ी सरकार को गिराने की कोशिश करने की कोई जरूरत नहीं है। ये सरकार अपने अंतर्विरोधों से खुद गिर जाएगी, वही हुआ।

पार्टी के कुछ विधायकों को लेकर शिवसेना के एकनाथ शिंदे ने सरकार बना ली। विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी ने पिछले दो-ढाई साल के दौरान महाराष्ट्र में अपना ऑपरेशन बहुत ही सोची-समझी रणनीति के तहत चलाया। उन्होने यहाँ कर्नाटक, मध्य प्रदेश या राजस्थान जैसा ऑपरेशन लोटस चलाने की कोशिश नहीं की क्योंकि यहाँ तीन-तीन पार्टियों से विधायकों को तोड़ना मुश्किल काम था।

बीजेपी अगर ये रणनीति अपनाती तो वह सत्ता के लिए बेचैन दिखती। बीजेपी को अपनी छवि की चिंता थी इसलिए उसने ये रणनीति छोड़ दी। उसने दूसरी रणनीति अपनाई और वह थी आक्रामकता के साथ सरकार की कमियों का उजागर करना है। चाहे कोविड को काबू करने में उद्धव सरकार की कथित नाकामी का मामला हो या फिर गैस सिलिंडर का सवाल या फिर रैलियों के जरिये सरकार को घेरना, असेंबली के बाहर और भीतर बीजेपी बेहद आक्रामक रही। विश्लेषकों के मुताबिक इस दौरान दूसरी रणनीति के मुताबिक ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स या नारकोटिक्स डिपार्टमेंट जैसी एजेंसियों के दौरान एनसीपी और शिव सेना के नेताओं के खिलाफ छापे की कार्रवाई चलती रही। गठबंधन बेमेल साबित हो गया। दूसरी तरफ शिवसेना और भाजपा का अलायंस क्या स्वाभाविक है? भाजपा-शिवसेना के गठबंधन की शुरुआत से लेकर अब तक के आंकड़ों को देखें तो पिछले 33 सालों में भाजपा 42 से 106 सीटों पर पहुंच गई, जबकि शिवसेना अधिकतम 73 से घटकर 56 सीटों पर आ गई। यानी, महाराष्ट्र में भाजपा 152 फीसद बढ़ गई वहीं शिवसेना 24 फीसद सिमट गई। जाहिर है, उद्धव ठाकरे इसी हकीकत को देख रहे हैं।
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