औरंगाबाद में औरंगजेब की क़ब्र – मुसलमानों के लिए शान का नहीं बल्कि शर्म का और हिंदू वीरों के गौरव का प्रतीक है;
अतुल मालवीय
क्रूरता और ताकत की मिसाल आततायी औरंगजेब को एक छोटी सी रियासत की हिंदू रानी केलाड़ी चेन्नमा ने शर्मनाक शिकस्त दी;
“मेरे बेटे, कभी अपने वचन से पीछे नहीं हटना, अपनी प्रजा में सबको समान समझना, सभी प्राणियों के प्रति दयाभाव रखना, तुम्हारी शरण में कोई भी आये, उसकी अपने प्राण देकर भी रक्षा करना| अमीर, गरीब सबको एक समझते हुए सम्मान देना ही तुम्हारा “राजधर्म” होना चाहिये” – “मृत्युशैय्या पर पड़ी हुई केलाड़ी की रानी चेन्नमा की अपने दत्तक पुत्र बासप्पा को सलाह”
मुस्लिम, ब्रिटिश और स्वतन्त्रता के पश्चात तथाकथित वामपंथी इतिहासकारों ने जानबूझकर हिंदू अस्मिता का भगवा ध्वज शान से फहराने वाले महान लोगों से हमें परिचित नहीं होने दिया| कितने लोग जानते होंगे कि पूरे हिंदुस्तान को अपने पैरों तले रौंदते हुए इस्लाम के हरे झंडे के नीचे लाने का संकल्प लिए क्रूरता और हिंदू धर्मस्थानों को भग्न करने की पराकाष्ठा पार करने वाले औरंगजेब को एक मामूली रियासत की हिंदू रानी केलाड़ी चेन्नमा ने शिकस्त की धूल चटा दी थी| कृपया ध्यान रखें कि केलाड़ी चेन्नमा और कित्तूर की रानी चेन्नमा दो पृथक महान रानियाँ हैं|
हम सब जानते हैं कि छत्रपति शिवाजी महाराज के पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज को मर्मांतक पीड़ा देकर मारने के बाद भी आततायियों का सिरमौर औरंगजेब छत्रपति शिवाजी द्वारा स्थापित हिंदू साम्राज्य को जीत तो नहीं पाया लेकिन विन्ध्य पर्वत के दक्षिण की ओर दक्कन (दक्षिण का फारसी भाषा में अपभ्रंश) के पठार में अनेक किले जीतने में सफल हो गया| संभाजी की दुखद मृत्यु के पश्चात मराठों ने शिवाजी के 19 वर्षीय छोटे पुत्र “राजाराम” को छत्रपति विभूषित किया| आगे की रणनीति बनाने के लिए महाराज राजाराम के लिए आवश्यक था कि धुर दक्षिण में घने जंगलों से लगे क्षेत्र के अविजित समझे जाने वाले “जिंजी दुर्ग” में किसी तरह पहुँच सकें| मुश्किल ये थी कि बीच का सैकड़ों मील का क्षेत्र या तो औरंगजेब के कब्जे में था या फिर उसके गुर्गे राजाओं के| इसके साथ ही राजाराम को शरण देने का सीधा सीधा मतलब था औरंगजेब से शत्रुता मोल लेना|
ऐसे में हर जगह से अस्वीकार्य होकर, छत्रपति राजाराम अपने सहयोगियों के साथ दक्षिण की सह्याद्रि पर्वतमाला से सटे क्षेत्र में लिंगायत तीर्थयात्रियों के भेष में केलाड़ी की रानी चेन्नमा के दरबार में पहुँचे| जब मंत्रियों को पता चला कि ये छत्रपति राजाराम हैं और औरंगजेब इनकी जान का प्यासा है तब सभी ने केलाड़ी रानी चेन्नमा को इन्हें शरण न देने की सलाह थी| केलाड़ी चेन्नमा ने अपने राज्य के संविधान को “राजधर्म” का नाम दिया हुआ था| उन्होंने निर्णय लिया कि राजधर्म के अनुसार हम राजाराम को शरण देंगे चाहे इसमें हमारा राज्य नष्ट ही क्यों न हो जाये और हमारी जान क्यों न चली जाये|
औरंगजेब को अपने गुप्तचरों से खबर मिल गयी| उसने केलाड़ी चेन्नमा को एक पत्र लिखकर कहा:
“मुझे पता चला है कि मेरा कट्टर दुश्मन राजाराम आपकी शरण में है| मैं आपके साथ मित्रता का प्रस्ताव और आपकी रियासत को मान्यता देने का वादा करते हुए अनुरोध करता हूँ कि राजाराम को तुरंत हमारे हवाले कर दिया जाये| बताने की ज़रूरत नहीं है कि यदि आपने ऐसा न किया तो मुगलिया सल्तनत आपको और आपके राज्य को नेस्तनाबूद करने की ताकत रखती है|”
रानी केलाड़ी चेन्नमा ने औरंगजेब को उत्तर देते हुए पत्र लिखा:
“बादशाह औरंगजेब, आपका पत्र मिला| केलाड़ी के लोगों को आपकी दोस्ती से कोई परहेज न होते हुए भी आपको सूचित किया जाता है कि छत्रपति राजाराम हमारी शरण में थे और उनकी रक्षा करना हमारा राजधर्म है| अतः आपको उन्हें सौंपने का प्रश्न ही नहीं उठता| हम उन्हें आगे जाने की अनुमति दे रहे हैं| आपने जो धमकी दी है उसकी परवाह न करते हुए हम परिणाम को “भगवान शंकर” पर छोड़ते हैं|”
औरंगजेब पत्र पाते ही तिलमिला गया और पचास हज़ार सैनिकों को तुरंत केलाड़ी पर हमला करने के साथ ही राजाराम और चेन्नमा को बंदी बनाकर दरबार में पेश करने का हुक्म दिया| चेन्नमा ने राजाराम को सुरक्षित निकालते हुए विशाल मुग़ल फ़ौज के साथ छापामार गुरिल्ला युद्ध किया| भगवान शंकर वाकई अपनी परमभक्त रानी के साथ थे| रानी के भाग्य से सह्याद्रि की घनी पर्वतमालाओं में घनघोर मानसून की शुरुआत हो चुकी थी, जंगलों में नदी नाले पूरे उफान पर थे, चारों ओर मच्छर, कीड़े मकोड़े साँपों से जंगल भर गया| मुग़ल सेना ऐसी परिस्थितियों की जहाँ बिल्कुल आदी नहीं थी वहीं चेन्नमा के सैनिक पहाड़ियों में छुपकर उन्हें निशाना बनाते| युद्ध से अधिक मुग़ल सैनिक मलेरिया, साँपों के कांटने, बाढ़ में बहने से मर गए| तीस हज़ार सैनिकों को खोकर लुटीपिटी मुग़ल सेना पीठ दिखाकर भागी| उधर राजाराम सुरक्षित जिंजी पहुँच गए और मराठाओं को फिर से संगठित करने में सफल रहे|
कल ही मैं औरंगाबाद निवासी अपने मित्र श्री नंदकिशोर मुले से “अकबरुद्दीन ओवैसी” के “खुल्दाबाद, औरंगाबाद” स्थित कब्र पर जाकर सम्मान देने का नाटक करने की चर्चा कर रहा था| क्या हमने कभी सोचा है कि क्यों दिल्ली और आगरा से अपनी चालीस लाख वर्ग किलोमीटर के विशाल क्षेत्र पर हुकूमत करने वाले मुग़ल बादशाह के शरीर को औरंगाबाद में गाड़ा गया| छत्रपति शिवाजी महाराज ने मुगलिया सल्तनत की चूलें तो पहले ही हिला दीं थीं, बाद में सतारा, औरंगाबाद और पूना के चारों ओर के “दक्कन” कहे जाने वाले विशाल भूभाग को किसी भी तरह हिंदुओं से छीनने का सपना औरंगजेब देखने लगा| माता जीजाबाई के सुपुत्र वीर शिवाजी ने हिंदू पद पादशाही की जड़ें मजबूती से इस तरह जमा दीं कि उनके बाद भी मराठा सामंतों को पराजित करना असंभव हो रहा था|
खिसियाये औरंगजेब ने दक्कन जीतने को जैसे अपने जीवन का एकमात्र मकसद बना लिया| उसे इतनी झुंझलाहट होती कि वह दिनरात बैठे बैठे अपनी दाढ़ी के बाल नोचा करता| विद्वान् स्टेनली वोल्पोर्ट लिखते हैं:
“दक्कन को जीतने की दीवानगी मुग़ल बादशाह औरंगजेब के सिर चढ़कर बोलती थी, उसने अपने जीवन के आख़िरी 26 साल इसी काम में व्यर्थ कर दिए और लड़ते लड़ते एक बेहद कमज़ोर, थका हारा बूढ़ा बन गया| इस लंबे अप्रत्याशित युद्ध ने मुग़ल सल्तनत को दिवालिया बना दिया| अकूत खर्च की कल्पना कीजिये - लगातार छब्बीस सालों तक पाँच लाख सैनिकों की फ़ौज जब युद्ध में जहाँ भी जाती तो उसके लिए टेंटों का शहर तीस मील के घेरे में बनाना पड़ता, 250 बाज़ार लगाने पड़ते, एक लाख घोड़ों, पचास हज़ार ऊंटों, तीस हज़ार हाथियों को खिलाने पिलाने का इंतज़ाम करना पड़ता| कहते हैं कि 3 मार्च 1707 को 88 साल की उम्र में औरंगाबाद के नजदीक अहमदनगर के भिंगार में जब जर्जर शरीर का औरंगजेब मरा तो उसके पास मात्र 300 रुपये ही बचे थे| आँखों में दक्कन विजय का सपना लिए हुए उसकी रूह जब इस दुनिया से फानी हो रही थी तब उसने कहा – मैं दक्कन नहीं जीत पाया, इस दुनिया में अकेला आया था और यहाँ जंगल में एक अजनबी की मौत मर रहा हूँ|”
कालांतर में मराठों, विशेषकर बाजीराव पेशवा प्रथम ने मुग़ल सल्तनत को एक तरह से ख़त्म कर उनके दिल्ली स्थित तख़्त से ही भारीभरकम कर वसूलना शुरू कर दिया| अफगानिस्तान के नजदीक अटक से ओड़िशा के कटक तक और कश्मीर से तंजावुर तक हिंदू स्वराज का भगवा ध्वज लहराने लगा| ये और बात है कि पानीपत की तीसरी लड़ाई में रोहिलखंड के नवाब नजीबुद्दौला और मराठों के रहमोकरम पर जी रहे अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने पीठ में छुरा भौंकते हुए अफगानी लुटेरे अहमदशाह अब्दाली के इस्लाम के आह्वान का साथ दिया, फलस्वरूप मराठे पराजित हुए|
अतः खुल्दाबाद, औरंगाबाद स्थित औरंगजेब की जिस कब्र को मुस्लिम शान का प्रतीक मानकर शैतान अकबरुद्दीन ओवैसी नाटक करने गया था वह हकीकत में मुगलिया सल्तनत के खात्मे और शर्म का प्रतीक होने के साथ ही हिंदू पुनुरुत्थान एवं गौरव का प्रतीक है, इतिहासकारों से आग्रह है कि इन तथ्यों और प्रमाणों को खंगालकर सुधार लें ताकि सच सबके सामने आ सके| वंदेमातरम्|लेखक - अतुल मालवीय
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

0 टिप्पणियाँ
दिव्य रश्मि की खबरों को प्राप्त करने के लिए हमारे खबरों को लाइक ओर पोर्टल को सब्सक्राइब करना ना भूले| दिव्य रश्मि समाचार यूट्यूब पर हमारे चैनल Divya Rashmi News को लाईक करें |
खबरों के लिए एवं जुड़ने के लिए सम्पर्क करें contact@divyarashmi.com