चीन जैसा दोस्त तो दुश्मन की क्या जरूरत

चीन जैसा दोस्त तो दुश्मन की क्या जरूरत

(डॉ. दिलीप अग्निहोत्री-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

  • श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान को हो गया है तजुर्बा
  • दोस्त बनाकर कर्ज के जाल में फंसाता है चीन
  • नेपाल के नये पीएम देउबा ने समझी चीन की चाल

चीन जिसका दोस्त हो उसे दुश्मनों की जरूरत नहीं होती। पाकिस्तान श्रीलंका सहित अनेक देश इसके उदाहरण है। चीन के कर्ज से ये देश बदहाल हो चुके है। कम्युनिस्ट सरकार नेपाल को भी उसी रसातल में ले जा रही थी। नेपाल ने निवर्तमान प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली चीन के अंधभक्त थे। किंतु नेपाल को पूरी तरह बर्बाद करने से पहले उनकी सत्ता से बिदाई हो गई। नेपाल के शेर बहादुर देउबा चीन की कुटिलता को समझते है। वह कम्युनिस्ट नहीं बल्कि राष्ट्रवादी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में उनका विश्वास है। इसलिये श्री काशी विश्वनाथ धाम पहुंच कर वह भाव विभोर होते है। ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार चीन के प्रति समर्पित थी। वह उसी के इशारों से चलते थे। भारत के साथ बेहतर संबन्ध रखने में उनकी कोई रुचि नहीं थी। उन्होंने चीन के इशारे पर कालापानी सीमा विवाद को भी हवा दी, जबकि उसके समाधान के लिए दोनों देशों के बीच एक तंत्र स्थापित है।

चीन एवं नेपाल के बीच रेल संपर्क जोड़ने का समझौता हुआ। दोनों देशों के बीच पावर ग्रिड कनेक्टिविटी की भी वार्ता हुई है। इसी प्रकार के कार्यों से चीन किसी देश में अपना नियंत्रण स्थापित करता है। इस प्रकार की सहायता से वह संबंधित देश की कर्ज के मकड़जाल में फंसा लेता है। गत वर्ष जुलाई में प्रधानमंत्री बनने के बाद वह भारत यात्रा पर आए थे। इससे पहले वह चार बार नेपाल के प्रधानमंत्री रहे। प्रत्येक कार्यकाल में उन्होंने भारत का दौरा किया था। चीन की असलियत नेपाल के सामने है। उसने नेपाल के कई हेक्टेयर क्षेत्र पर अपना कब्जा जमा लिया है। तत्कालीन प्रधानमंत्री ओली में इसके विरोध का साहस नहीं है। देउबा ने चीन से सावधान रहने का निर्णय लिया। उन्होंने भारत को अपना स्वाभाविक मित्र माना है।

चीन की जगह देउबा अमेरिका से संबन्ध सुधार रहे है। उनके प्रयास से नेपाल संसद ने अमेरिका के साथ पांच सौ मिलियन डॉलर के मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन नेपाल कॉम्पैक्ट को मजूरी दी है। इसके अंतर्गत अमेरिका द्वारा नेपाल में सड़क, बिजली सहित बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं पर काम किया जाएगा। नेपाल की चीन बेल्ट एंड रोड परियोजना में दिलचस्पी कम हो गई है। देउबा की भारत यात्रा के एक महीने बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेपाल पहुंचे। इसके लिए उन्होंने बुद्ध पूर्णिमा का दिन चुना था। वह भारत व नेपाल के गहन सांस्कृतिक संबन्धों का भी सन्देश देना चाहते। इसलिए उन्होंने कहा कि नेपाल के बिना श्री राम की कथा भी अधूरी है। वह लुंबिनी में आयोजित बुद्ध पूर्णिमा समारोह में सहभागी हुए। उन्होंने कहा अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण से नेपाल के लोग भी बहुत प्रसन्न हैं। नेपाल के बिना हमारे राम भी अधूरे हैं। हमारी सदियों पुरानी साझा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परंपराएं है। सारनाथ,बोधगया, कुशीनगर और लुंबिनी हमारी साझा ऐतिहासिक विरासत का हिस्सा हैं।

मोदी की यात्रा केवल सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण नही रही। बल्कि आर्थिक व व्यापारिक साझेदारी भी आगे बढ़ी है। सहयोग को मजबूत करने और नए क्षेत्रों को विकसित करने का मार्ग प्रशस्त हुआ है। बौद्ध अध्ययन के लिए डॉ.अम्बेडकर पीठ की स्थापना पर भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद और लुंबिनी बौद्ध विश्वविद्यालय के बीच समझौता ज्ञापन किया गया। अलावा भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद और सीएनएएस, त्रिभुवन विश्वविद्यालय के बीच भारतीय अध्ययन के आईसीसीआर चेयर की स्थापना पर समझौता हुआ। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद और काठमांडू विश्वविद्यालय के बीच भारतीय अध्ययन के आईसीसीआर चेयर की स्थापना पर समझौता ज्ञापन और काठमांडू विश्वविद्यालय नेपाल और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मद्रास भारत के बीच सहयोग के लिए समझौता हुआ। मास्टर स्तर पर संयुक्त डिग्री कार्यक्रम के लिए काठमांडू विश्वविद्यालय नेपाल और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान।भारत के बीच समझौता पत्र हस्ताक्षर किए हैं। अरुण चार परियोजना के विकास और कार्यान्वयन के लिए एसजेवीएन लिमिटेड और नेपाल विद्युत प्राधिकरण के बीच समझौता हुआ है। भारत और नेपाल सांस्कृतिक संबन्ध मजबूत होंगे। नेपाल में केंद्र का निर्माण अंतरराष्ट्रीय बौद्ध संघ नई दिल्ली में आईबीसी और एलडीटी के बीच हुए समझौते के तहत लुंबिनी डेवलपमेंट ट्रस्ट द्वारा किया जाएगा।

शिलान्यास समारोह को तीन प्रमुख बौद्ध परंपराओं, थेरवाद, महायान और वज्रयान से संबंधित भिक्षुओं ने करवाया था। दोनों प्रधानमंत्रियों ने केंद्र के एक मॉडल का भी अनावरण किया। निर्माण कार्य पूरा हो जाने के बाद, यह केंद्र बौद्ध धर्म के आध्यात्मिक पहलुओं के सार का आनंद लेने के लिए दुनिया भर के तीर्थयात्रियों और पर्यटकों का स्वागत करने वाला एक विश्व स्तरीय सुविधा युक्त केंद्र होगा।

चीन से कर्ज लेना कितना भारी पड़ सकता है, इसकी ताजा मिसाल श्रीलंका है। श्रीलंका में वित्तीय और मानवीय संकटगहरा गया है। महंगाई रेकॉर्ड लेवल पर पहुंच गई है, खाद्य पदार्थों की कीमत में बेतहाशा तेजी आई है और सरकारी खजाना तेजी से खाली हो रहा है। सकार बदल गयी।

सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत कैसे हुई। इसके कई कारण हैं। कोरोना संकट के कारण देश का टूरिज्म सेक्टर बुरी तरह प्रभावित हुआ। साथ ही सरकारी खर्च में बढ़ोतरी और टैक्स में कटौती ने हालात को और बदतर बना दिया। ऊपर से चीन के कर्ज को चुकाते-चुकाते श्रीलंका की कमर टूट गई। देश में विदेशी मुद्रा भंडार एक दशक के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया। सरकार को घरेलू लोन और विदेशी बॉन्ड्स का भुगतान करने के लिए पैसा छापना पड़ रहा है। विश्व बैंक के अनुमानों के मुताबिक महामारी के शुरू होने के बाद से देश में 500,000 लोग गरीबी के मकड़जाल में फंस गए हैं। श्रीलंका की कुल जीडीपी में पर्यटन का हिस्सा 10 फीसदी है लेकिन महामारी के कारण यह सेक्टर सबसे अधिक प्रभावित हुआ है। ट्रैवल एंड टूरिज्म सेक्टर में 200,000 से अधिक लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। बड़ी संख्या में देश के युवा और शिक्षित लोग देश छोड़ना चाहते हैं। इस सूरतेहाल ने पुरानी पीढ़ी के लिए 1970 के दशक की यादें को ताजा कर दिया है जब आयात पर नियंत्रण और घरेलू स्तर पर कम उत्पादन के कारण बुनियादी चीजों की भारी किल्लत हो गई थी।श्रीलंका के इस हालात के लिए विदेशी कर्ज खासकर चीन से लिया गया कर्ज भी जिम्मेदार है। चीन का श्रीलंका पर 5 अरब डॉलर से अधिक कर्ज है। पिछले साल उसने देश में वित्तीय संकट से उबरने के लिए चीन से और 1 अरब डॉलर का कर्ज लिया था। अब नए पीएम अनिल विक्रमसिंघे विश्व बैंक से बात कर रहे हैं। भारत ने तो ईंधन समेत कई तरह से मदद की।
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