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मजदूर हूँ साहब दूर नहीं हूँ

मजदूर हूँ साहब दूर नहीं हूँ

.....मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"।
मजदूर हूँ साहब
 दूर नहीं हूँ
मगरूर हूँ साहब
मजबूर नहीं हूँ
पेशानी के पसीने पोछता हूँ जरूर मगर
बच्चों के लिये दो रोटी को सोंचता हूँ हुजूर
इन फटे चीथड़ों को मत देखो
दिन रात मिहनत करता हूँ
चैन की नींद सोता हूँ
तभी तो आपका ये 
आलीशान बंगला 
बरकरार है
मेरा क्या मुझे तो बस
दो वक्त की रोटी का इंतजार है
क्या करूँगा लकदक सूट पहनकर
आखिर ऊपर तो नंगे ही जाना है
कहाँ रखूँगा इन लाल पीले 
हरे नोटों की गड्डियाँ
इन चीथड़ों में जेब नहीं होते
जमीन पर सोता हूँ खुले आसमान तले
बाक्स वाला पलंग कहाँ है मेरे पास
मखमली खोल वाले गद्दे भी नहीं
जहाँ रख पाऊँ सोने के गहनो की पोटली
एक अदद बकरी तो पाल नहीं सकता
जर्मन सेफायर डाग कैसे बाँधू दरवज्जे पर
एसी कूलर की बात करना बेमानी होगी
नीम पीपल बरगद के छाँव भी नसीब नहीं 
अब गरमी मे सुकून के साँस को
फ्रीज के ठंढे बोतल का पानी भी स्वप्नवत् है
प्यास बुझाने को अब तो 
सारे जलस्रोत गर्भगत हैं
अपनी तो औकात ही नहीं
सीलबंद बोतल खरीदने की।
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