साल भर कलह से जूझी कांग्रेस

साल भर कलह से जूझी कांग्रेस

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

कभी अपने तो कभी पराये कांग्रेस को जर्जर बनाते चले गये। पार्टी के अन्दर ग्रुप-23 असंतुष्टों का मंच बन गया तो पंजाब में नवजोत सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह, राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और डिप्टी सीएम रहे सचिन पायलट की जंग सड़क तक आ गयी। मध्य प्रदेश में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की जंग ऐसी हुई कि कांग्रेस से सत्ता ही भाजपा ने छी ली। छत्तीसगढ़ में भी पार्टी के अंदर विवाद चल रहा है और गुटबाजी के लिए बदनाम यूपी से तो जितिन प्रसाद जैसे नेता कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गये। अगले साल पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा के चुनाव ही बताएंगे कि कांग्रेस की ग्रह दशा में कितना सुधार हुआ है।

अब लगभग साल 2021 का अंत होने वाला है। राजनीति दृष्टि से यह साल कांग्रेस के लिए असमंजस, नेतृत्व की लड़ाई, भीतरी कलह और चुनावी हार के तौर पर याद किया जाएगा। भले ही राहुल खुद कांग्रेस के अध्यक्ष के पद के लिए अनिच्छुकता जाहिर करते रहे, लेकिन फिर भी चाहे मुख्यमंत्री का चुनाव हो, पार्टी की नीतियां हों या दूसरे अहम फैसले। ऐसा लगता है कि सभी फैसले 12 तुगलक लेन यानी राहुल गांधी के निवास से ही होते हैं। कांग्रेस के लिए 2021 का पहला धमाका राहुल गांधी का केरल को अपना नया गढ़ बनाना था। इस साल की शुरुआत में राज्य के चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। पश्चिम बंगाल में जहां इन्होंने वाम दल का हाथ थामा था, इन्हें सिफर हासिल हुआ। साथ में तृणमूल कांग्रेस की दुश्मनी मुफ्त में मिल गई, जो अब कांग्रेस को हरियाणा, असम, गोआ, पंजाब और दूसरे राज्यों से साफ करने पर तुली हुई है। सबसे ज्यादा नुकसान तो केरल में हुआ, जहां से राहुल गांधी सांसद हैं। वहां भी पार्टी की नीतियां और रणनीति दोषपूर्ण लग रही थी और नतीजतन वामदल फिर से सत्ता पर काबिज हुआ। केवल तमिलनाडु ऐसा राज्य है जहां कांग्रेस अपनी सत्ता को संभाले रखने में सफल रही। वह भी इसलिए क्योंकि वहां डीएमके खेवनहार बना था। यही कारण रहे कि 2021 में कांगे्रस लगातार छीजती चली गयी।

कांगे्रस में ग्रुप-23 बना। राहुल गांधी का कांग्रेस की बागडोर संभालना तब और मुश्किल लगने लगता है जब वह अपने बयानों से पार्टी को मुश्किलों में ला देते हैं। मसलन उनके हिंदू धर्म बनाम हिंदुत्व का बयान और लिंचिग के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दोष देना। वीर सावरकर की आलोचना ये ऐसे बयान थे जिसने कांग्रेस को असहज कर दिया है। पार्टी में ही कई लोगों का मानना है कि ऐसे बयानों की कोई जरूरत नहीं थी, यह केवल हमें नुकसान ही पहुंचा सकता है। गांधी कमजोर नेतृत्व की बात सुन सुनकर तंग आ चुके हैं और बताना चाहते थे कि कांग्रेस में असली बॉस कौन है और इसके लिए पंजाब को एक प्रयोग के तौर पर चुना गया। यहां पार्टी और अमरिंदर सिंह के बीच खटास चल रही थी। गांधी परिवार ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने का मन बना लिया था। लेकिन वह इस काम को नजाकत और चतुराई के साथ करना चाहते थे। हालांकि कुछ भी हो, लेकिन अमरिंदर की नाराजगी और उनका भाजपा के साथ हाथ मिलाना कांग्रेस को भारी पड़ सकता है। राहुल गांधी का यह मकसद कि पार्टी और सरकार का आपसी समझ बूझ के साथ काम करना सुनिश्चित हो सके, पूरी तरह से नाकाम हो चुका है। चरणजीत चन्नी बनाम नवजोत सिद्धू इस भीतरी कलह का सबसे हालिया उदाहरण है। छत्तीसगढ़ में भी टीएस सिंह देव को मुख्यममंत्री बनाने का राहुल गांधी का वादा पूरा नहीं हो सका क्योंकि बघेल ने खुद को ओबीसी के नेता के तौर पर स्थापित करके दबदबा कायम कर लिया था, जिसने गांधी परिवार के लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं। यही हाल अब उत्तराखंड में भी दिख रहे हैं, जहां गांधी परिवार यशपाल आर्य को आगे करना चाहता है और हरीश रावत को बाहर करने का उनका मन चुनाव में उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है। इसी तरह राजस्थान में सचिन पायलट भले ही अभी शांत हों, लेकिन वह लंबे समय तक रहते हैं इसे लेकर शक है। इस प्रकार साल भर कलह मची रही।

कांग्रेस का पहला गलत फैसला वाम दल का हाथ थामना था। वाम दलों का वोटबैंक लगातार कम होता जा रहा है ऐसे में उसके साथ गठबंधन एक फिजूल का फैसला था। साथ ही इसका यह भी मतलब था कि टीएमसी के साथ अब कभी रिश्ता नहीं बनेगा। इससे भी गलत फैसला था कट्टरपंथी फुरफुरा शरीफ के नेता अब्बास सिद्दीकी के साथ हाथ मिलाना। कोलकाता के ब्रिगेड ग्राउंड में एक सार्वजनिक रैली में कांग्रेस के राज्य प्रमुख अधीर रंजन को अब्बास ने खुलेआम झिड़क दिया था। कांग्रेस की इस गठबंधन को लेकर बहुत आलोचना हुई थी और इसने उनके नए हिंदुत्व को नुकसान पहुंचाया है। कांग्रेस ने भले ही बाद में अब्बास से दूरी बना ली हो, लेकिन जो नुकसान होना था वह हो चुका था। कांग्रेस ने भवानीपुर में होने वाले उपचुनाव में ममता के विरुद्ध किसी प्रत्याशी को खड़ा नहीं करने का फैसला लिया। इसके बावजूद उन्हें ममता बनर्जी की दोस्ती हासिल नहीं हुई। ममता ने राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के खिलाफ झंडा बुलंद कर दिया है। असम में भी बदरूद्दीन अजमल के साथ कांग्रेस की साझेदारी ने छवि को धूमिल किया और इसका नुकसान राज्य के चुनाव में देखने को मिला। यही कहानी केरल में भी दोहराई गई, जहां कांग्रेस ने परंपरागत क्रिश्चियन वोट को खो दिया और वाम दल के विकल्प के रूप में खुद को साबित करने में नाकाम रही। राहुल के सामने सबसे बड़ी बाधा विपक्षी दलों की स्वीकार्यता है। शिवसेना नेता संजय राउत भले ही उनका बचाव करते हों, लेकिन ममता, शरद पवार जैसे धाकड़ नेता उनके साथ काम करने को लेकर असहज ही हैं। इसी तरह पार्टी में भी कई लोग उनकी कार्यशैली से असहज हैं जबकि सोनिया गांधी के मिलनसार होने का उन्हें फायदा मिलता है।

राहुल गांधी हिंदुत्व पर प्रहार करने का कोई भी मौका नहीं चूकते हैं। उनका मानना है कि हिंदू और हिंदुत्व अलग-अलग हैं, जबकि साधारण संस्कृत जानने वालों को भी पता है कि हिंदू और हिंदुत्व एक ही बात है। हिदुत्व, हिंदू होने की अवस्था या गुण होता है।

राहुल जहां हिंदुत्व पर प्रहार करने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं, वहीं वह इस्लाम या इस्लामवादियों के किसी भी हिंसक कार्य की कभी भर्त्सना करते नजर नहीं आते हैं। यह साफ करता है कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता अंदर से खोखली, खतरनाक और अल्पसंख्यक वाद से जुड़ी हुई है।

राहुल के हिंदुत्व पर हमले का समय भी खराब है, उन्होंने यह कदम उस वक्त उठाया, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हिंदू सभ्यता के गौरव का प्रदर्शन करते हुए काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर का उद्घाटन किया। इस मंदिर को औरंगजेब ने 1669 में ज्ञानवापी मस्जिद निर्माण के लिए ध्वस्त किया था। अब यहां फिर से काशी विश्वनाथ की स्थापना को लेकर भारत की जनता में बेहद उत्साह है, ऐसे में राहुल गांधी का यह दांव उल्टा पड़ गया है। एक तरफ कलह और दूसरी तरफ कमजोर नेतृत्व कांग्रेस की बीमारी बन गयी है। (हिफी)हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

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