प्राणवायु के लिए लड़ने वाले योद्धा

प्राणवायु के लिए लड़ने वाले योद्धा

(अचिता-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले मंे वनवाड़ी को बचाने वाले आदिवासी हों अथवा झारखण्ड मंे रामगढ़ के मुरामकला मंे जंगलों की सुरक्षा मंे लगे लोग- इन सभी को नमन करना होगा। ये प्रातः स्मरणीय लोग हैं। ये प्राणवायु से लड़ने वाले सिपाही हैं जो दूसरे देशों के दुश्मनों से नहीं अपने ही देश मंे वन तस्करों से लड़ते हैं। कभी-कभी इनको अपनी जान तक गंवानी पड़ती है। इसके बावजूद इनके इरादे अटल हैं तो मुराम कलां के जंगल लहलहा रहे हैं। यह हरीतिका, जो आक्सीजन से भरी है, इसको लाने के लिए यहां के ग्रामीणों को 30 साल तक संघर्ष करना पड़ा है। इसी प्रकार महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले मंे पश्चिमी घाट की पहाड़ियों के गोद मंे डेढ़ दशक मंे दो मराठा जमींदारों से 64 एकड़ जमीन खरीद कर वहां लहलहाता जंगल उगाया गया है। इन वनवाड़ी को बनाने मंे आदिवासियों की भी महती भूमिका रही है। 
झारखंड के रामगढ़ में पिछले 30 सालों से ग्रामीण मुरामकला के जंगलों  की सुरक्षा में लगे हुए हैं। इससे पहले यहां जंगल के नाम पर सिर्फ झाड़ी और ठूंठ बचा हुआ था। लेकिन अब ये जंगल 860 एकड़ की जमीन पर फैला हुआ है। अब यहां जंगली-जानवर खुलकर विचरण करते हैं। इस जंगल की सुरक्षा में जुटी समिति को दो बार पुरस्कार से सम्मानित भी किया जा चुका है। रामगढ़ शहर से सटे मुरामकला के ग्रामीण बीते तीन दशक से जंगलों को सामूहिक रूप से बचाने के अभियान में जुटे हुए हैं। ग्रामीणों के सामूहिक प्रयास से 860 एकड़ में फैला मुरामकला का जंगल पेड़ों की हरियाली से लहलहा रहा है। इसमें सखुआ, समेत करंज, जामुन, महुवा आम, बांस और बीमारियों में काम आने वाले कई उपयोगी जड़ी-बूटी के पौधे लोगो के काम आ रहे हैं। इस जंगल को बचाने का प्रयास वर्ष 1986 से शुरू हुआ था। इसकी शुरुआत पूर्व मुखिया गणेश महतो ने अपनी टीम के साथ समित्ति बनाकर की थी। बाद में गांव के युवकों ने जंगल बचाने के अभियान को आगे बढ़ाया। रात के अंधेरे में भी समिति पेड़ों की रक्षा करती है और पेड़ काटते समय पकड़े जाने पर आरोपी को ग्राम स्तर पर सजा निर्धारित करती है। मुरामकला का यह जंगल संरक्षित वनों की श्रेणी में पूरे राज्य में तीसरे स्थान पर आता है। वनों को बचाने को लेकर वर्ष 1992 और 2016 में राज्य स्तरीय पुरस्कार समित्ति को सरकार ने प्रदान किया है। जंगल में जंगली जानवर भी हैं। इनमें मोर, जंगली सुअर, खरगोश, बंदर, साहिल, नीलगाय, भालू और कोटरा भी है। ग्रामीण यहां पर बायो डायवर्सिटी पार्क बनाने की मांग सरकार से कर रहे हैं। ताकि लोग यहां घूमने आएं और इसी माध्यम उन्हें रोजगार उपलब्ध हो सके।
पूर्व अध्यक्ष वन सुरक्षा संरक्षण समिति के चिंतामणि पटेल और वर्तमान अध्यक्ष वन सुरक्षा व संरक्षण समिति के मनीजर महतो ने बताया कि 1986 में जब अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी की कमी महसूस हुई तब से जंगल बचाने की मुहिम की शुरुआत 
हुई। आज मुरामकला का जंगल हरियाली फैला रहा है साथ ही पर्यावरण के संतुलन में सहायक सिद्ध हो 
रहा है।
इसी प्रकार महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में पश्चिमी घाट की पहाड़ियों की गोद में मुंबई-पुणे मार्ग से लगभग तीस किलोमीटर की दूरी पर अपने साथियों के सहयोग से भरत मंसाता द्वारा बसाया गया वन वाड़ी प्राकृतिक प्रेम का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। लगभग डेढ़ दशक पहले कुछ लोगों ने मिलकर इस इलाके में दो मराठा जमींदारों से 64 एकड़ जमीन खरीदकर फॉरेस्ट फार्म बनाने का मन बनाया। प्रारंभ में इसका नाम विजन एकड़ रखा गया लेकिन पांच साल बाद नाम बदलकर स्थानीय नाम वन वाड़ी कर दिया गया, जिसका मतलब है फॉरेस्ट सेटलमेंट या फॉरेस्ट फार्म। वन वाड़ी के संस्थापक सदस्य भरत मंसाता का कहना है कि इतने बड़े इलाके की प्राकृतिक दशा को बचाते हुए सुनियोजित ढंग से विकास करना आसान भी नहीं था।वन वाड़ी को बचाने के लिए सबसे बड़ी समस्या इलाके की घेराबंदी की थी, फिर नजदीक के आदिवासी लोग भी अपने मवेशी लेकर इलाके में घूमते रहते थे। ऐसे में पेड़-पौधों को बचाना मुश्किल था। इसलिए इन्होंने कुछ आदिवासियों को भी वन वाड़ी के विकास में साथ ले लिया। फायदा यह हुआ कि इन आदिवासियों को काम मिला। साथ ही इन्हें जीने का नया मकसद भी मिला। घेरेबंदी के लिए दीवार के अलावा वहां बहुतायत मात्रा में उगने वाले काथी, कलक, निर्गुदी, सबरी, चंद्रज्योति, करवंदा, रत्नज्योति और सगरगोटा जैसे कंटीली झाड़ी, बांस, चिकित्सकीय पौधे और लताएं लगायी गयीं। वन वाड़ी में एक बड़े भाग पर तरह-तरह के पेड़ पौधे हैं।आदिवासियों की मदद से इस इलाके में पाये जाने वाले सौ से भी अधिक प्रकार के पौधों की प्रजातियों की खोज की गयी। वन वाड़ी में लगभग चालीस हजार पेड़ हैं। इनमें आम, सीताफल, ड्रमस्टिक, चीकू, नारियल, अमरूद, आंवला, करंज, काजू, पीपल, बरगद, पलाश, चंपा और कई तरह के फलदार और लकड़ी वाले पेड़ हैं। यहां आने वाली पर्यटकों का कहना है कि जंगल में समय बिताने का मजा ही अलग है। टीवी और मोबाइल से दूर यहां प्रकृति को करीब से देखने का अवसर मिलता है।
मनुष्य और पर्यावरण दोनों के बीच सदियों से अटूट रिश्ता रहा है लेकिन मनुष्य ने अपने अस्तित्व की रक्षा व विकास के नाम पर प्रकृति के साथ जो निर्ममता दिखाई है उससे न केवल पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ा है बल्कि पर्यावरण का खतरा भी उत्पन्न हो गया है। पर्यावरण का तात्पर्य वायु, जल, जमीन, जंगल से है जो दिनों दिन प्रदूषित होता जा रहा है। इस प्रदूषण को रोकने वाला एक मात्र कारक पेड़, पौधे और जंगल का मनुष्य द्वारा अंधाधुंध दोहन है जिससे पर्यावरण असंतुलन का खतरा उत्पन्न होने लगा है। पर्यावरणविदों का मानना है कि पर्यावरण संतुलन के लिए पृथ्वी पर 33 प्रतिशत वनों का होना जरूरी है लेकिन मौजूदा वनों की स्थिति भयावह और सोचनीय है। आंकड़ों पर गौर करें तो साहिबगंज जिले के 17986 एकड़ क्षेत्रफल में वन फैला हुआ है। वहीं लगातार वन क्षेत्र के दोहन व पहाड़ों के उत्खनन से पर्यावरण संतुलन बिगड़ता जा रहा है। यहां धड़ल्ले से वनों के कटाई, नित नए-नए खदान क्षेत्र का खुलना, विकास के नाम पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई ये सब कारक पर्यावरण संतुलन को और बिगाड़ने का काम कर रहे हैं। जिस परिणाम बीते कुछ वर्षो से बारिश में अप्रत्याशित कमी के रूप में दिख रहा है। जिले के बरहड़वा, बाकुडीह, पतना, मिर्जाचैकी, जेलिबीया घाटी, सकरीगली, महराजपुर, राजमहल, तीनपहाड़ में प्रतिदिन सैकड़ांे क्रेशर के द्वारा पहाड़ों से पत्थर व हरे भरे जंगल का सफाया किया जा रहा है। सिर्फ यही नहीं जंगल की दुर्लभ जड़ी बूटियां भी समाप्त हो रही हैं। (हिफी)
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ