आजादी
आधे संदर्भों पर नरेटिव गढना वामियो कांगियो की सदैव से आदत है और मीडिया वह तो अधिकतर अपनी टी आर पी या कहें धन के लिए विदेशों के फैंके टूकडों पर पलता ही नजर आता है।
भारत 1947 में आजाद हुआ तो फिर वामियों कांगियों को थे एन यू में आजादी के नारे क्यों?
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हमारा भारत आज भी अनेक संदर्भों में आजाद कहां है, काश्मीर के हालात से विगत सात वर्ष में आन्तरिक स्थिति से अवगत हो सके। 1990 के दशक में अगर भारत आजाद था तो काश्मीर में हिन्दू क्यों निकाले गए
भारत का हिस्सा काश्मीर भारत में होते हुए भी अब आजाद हुआ। और अवरोध तो अभी हैं।
पश्चिम बंगाल आज आजाद भारत में रहकर भी आजाद कहां हो? केरल के हालात सामने हैं। कहां है आजादी, क्या हिन्दुओं को आजादी का मतलब पता है वहां, शायद नहीं। क्योंकि जब राज्य सरकार ही उत्पीड़न में सहायक हो और केन्द्र नैतिकता की दुहाई देकर संविधान का हवाला देते हुए अन्धे धृतराष्ट्र सा व्यवहार करें तो आजादी कहां?
जामा मस्जिद इमाम दिल्ली पर न जाने कितने मुकदमे, कितने नोटिस कितने बिलों का भुगतान बकाया, मगर कोई कार्रवाई नहीं, तब पता चलता है कि देश को एक और आजादी की जरूरत है जिसमें सभी नागरिकों को एक समान समझा जाये, भेदभाव पर नियंत्रण हो। मानवाधिकार जैसी दोगली संस्थाएं, वक्फ बोर्ड तथा सरिया कानून जैसे सभी दोहरे संविधान विरोधी व्यवस्थाओं को बंद किया जाए।
आज बड़े बड़े बुद्धिजीवी आजादी की शाब्दिक बहस में उलझे रहे हैं। धर्म से आजादी, कपड़ों से आजादी, संस्कारों से आजादी, राष्ट्र वाद से आजादी, राष्ट्र गान और वन्देमातरम् से आजादी, किसी मोहल्ले गांव शहर और राज्य से आजादी का सपना देख रहे इन तथाकथित दोगले धर्मनिरपेक्ष लोगों को आजादी पर कोई प्रश्न नहीं, मगर कंगना ने सबका कंगना खड़का दिया। सब विधवाओं की भांति विलाप कर रहे हैं। और मजेदार बात यह कि किसी से कैमरे के पीछे बात करो तो कांग्रेसी कहते हैं
हम आज तक भी गांधी परिवार से आजाद नहीं हो पाये, मैडम के बाद राहुल प्रियंका और आगे फिर बच्चे।
कांग्रेस में जिसने आजादी चाही उसका हश्र कांग्रेसी जानते हैं। वाम में आजादी का मतलब शराब ख्वाब और शवाब। बड़े नेता छोटे को और छोटा गरीब मजदूर को लूट रहा है। सभी फैक्ट्रियों में पता कर लो लाल झंडे का पैसा हर माह जाता है शान्ति बनाते रखने को।
आजाद मुल्क में आजादी की बातों पर बोलना गुनाह है। अगर हम कंगना के बयान के संदर्भ में देखें तो आजादी के नायक और असली हकदार सुभाष चन्द्र बोस की बात नहीं होती जिन्होंने देश को आजादी दिलाई। बात होती है उन लोगों की जिन्होंने सुभाष की गुलामी की शर्तें तय कर भीख में आजादी पायी, स्वतंत्रता की बलि वेदी पर क्रांतिकारियों के योगदान को नकार दिया और खाली हाथ अहिंसा से आजादी के किस्से गढ़े। हमें किसी के योगदान को नकारना नहीं अपितु सबके योगदान की चर्चा और महत्व देना है।
अनेक संदर्भों में यह सच है कि आज भी भारत में आजादी नहीं है। किसी की आंख पर पट्टी बंधी है, कोई अन्धा है या कोई खुली आंख से भी देखना नहीं चाहता, यह अलग बात है। परन्तु सत्य को स्वीकार करना ही होगा।
अ कीर्ति वर्द्धन
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