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सोशल मीडिया के समय में पत्रकारिता की चुनौतियां-

सोशल मीडिया के समय में पत्रकारिता की चुनौतियां- 

मनुज बली नहीं होत है समय होत बलवान- यह कहावत आज के कुछ स्वनामधन्य तथाकथित मूर्धन्य पत्रकारों पर बड़ी खूबसूरती से लागू होता है। राजदीप, पुण्य प्रसून वाजपेयी, बरखा दत्त, प्रोनोय रॉय, अजीत अंजुम, निधि, सागरिका घोष, रविश कुमार जैसे जाने कितने तिनके जो सत्ता की चादर लपेट कर बलिष्ठ काष्ठ का अनुभव कराते थे अचानक ही परिदृश्य से विलीन हो गए। ये वो पत्रकार थे जिनके इशारे पर भारतीय मंत्रिपरिषद में मंत्री चुने जाते थे, शर्त बस इतनी थी कि सरकार के विरुद्ध जाने वाली हर खबर दबा दी जाए या ऐसे प्रस्तुत की जाए मानो ये कोई बड़ी बात नहीं, हर देश में ऐसा होता है। देश की संसद में सन 2012 में तत्कालीन रक्षामंत्री का दिया भाषण जहां उन्होंने कहा था कि देश के पास गोली ख़रीदने के भी पैसे नहीं है कुछ ऐसे प्रस्तुत किया गया मानो हमे कौन सा किसी से लड़ने जाना है जो गोली बारूद खरीदने के आइए कष्ट उठाएं। राफेल का तो चिंतन भी कष्टसाध्य था। जब 2008 में चीन ने हमारी सीमाओं का अतिक्रमण कर 28 KM अंदर तक घुसपैठ की तो तब के प्रधाममंत्री मनमोहन सिंह ने विचार दिया कि सीमा पर ऐसे छोटे मोटे अतिक्रमणों को हमेह अनदेखा करना चाहिए अन्यथा हम चीन को नाराज़ कर सकते हैं। पुनः इन स्वनामधन्य पत्रकारों ने इसे मुद्दा नहों बनाया और अपने प्रश्न पूछने के अधिकारों का इस्तेमाल नहीं किया। यही नहीं जब 15 मई 2014 को लोकसभा के परिणाम घोषित हो गए और यह सुस्पष्ट था कि वर्तमान सरकार ने बहुमत खो दिया है तब भी 25 मई को स्वर्ण आयात निर्यात कानूनों को बदल गया जिसने नीरव मोदी और मेहुल चौकसी कांड को जन्म दिया। ज्ञात हो कि नरेंद्र मोदी सरकार ने 26 मई को देश को सत्ता संभाली थी। अफसोस है कि ये तथाकथित पत्रकार इस मुद्दे को उठाना ही भूल गए। देश की संसद के ऊपर सन 2004 से 2014 तक  NAC नामक एक संस्था बनाकर देश के प्रधान मंत्री के पद को गौण कर दिया गया पर इनकी कलम सत्ता की चाकरी में ही व्यस्त रही। किसी ने नहीं पूछा कि सोनिया गांधी किस हैसियत से संसद से उपर हो गयी। देश मे आने वाले विदेशी मेहमानों के सामने मैन मोहन सिंह को दोयम दर्जे का स्थान मिलता रहा और सोनिया प्रमुखता पाती रहीं पर ये बोलने के अधिकारों के तथाकथित संरक्षक अपनी जुबान या कलम नहीं हिला पाए। एक पत्रकार तो इतने आगे बढ़ गए कि उन्होंने बाकायदा केजरीवाल को ट्यूशन दी कि सेट कैसा होना चाहिए और उन्हें क्या बोलना चाहिए। केजरीवाल तो खैर काबिज हो गए पर इन महोदय का तंबू उखड़ गया। नतीजन आज नेटीजन इन्हें "बहुत क्रांतिकारी" कह कर इनका उपहास करते हैं और इनके पास दांते निपोरने के अलावा कोई और कार्य नहीं है। एक सज्जन तो अपनी जमी जमाई दुकान छोड़कर राजनीति में घुस गए पर वहां से भी कुत्ते की तरह दुत्कारे गए और आजकल विभिन्न चैनलों पर सरकार के विरोध में अपना झंडा बुलंद किये रहते हैं। आखिर इन 7 वर्षों में ऐसा क्या हो गया कि ये इस स्थिति में पहुंच गए। इसके दो प्रमुख कारण हैं - प्रथम सत्ता ने इनके साथ मलाई बांटना बैंड कर दिया है अन्य प्रमुख कारण इन लोगों का हिन्दू विरोधी और मुस्लिम समर्थक होना रहा है। अपने इस चिंतन जिसे ये सेकुलरिज्म का नाम देते हैं में ये इतने घुस गए कि ये हिन्दू विरोधी होते होते भारत विरोधी बन गए। पाकिस्तान इन सभी का प्रिय देश बन गया और इस्लामी आतंकवादी इन्हें हमेशा किसी गरीब हेडमास्टर का बेटा मिला। ऐसा भी नहीं है कि ये इस बात को जानते या समझते नहीं पर अपनी आदत में सुधार करना इन्हें गंवारा नहीं है अन्यथा अमेरिका जैसे आबादी के हिसाब से छोटे से देश मे 6.5 लाख मौतों की खबर न दिखाकर ये भारत में हुई मौतों को श्मसान से लाइव टेलीकास्ट करते रहे ताकि वर्तमान सरकार की बदनामी हो। मनुष्य को अक्सर ये भ्रम हो जाता है कि वो बडा ताकतवर है इस कारण से एक पत्रकार अमेरिका तक मे हाथापाई पर उतर जाता है और भारत मे एक चोर की पिटाई को हिन्दू मुस्लिम विद्वेष से जोड़ देता है। अगर आप भारत के समाचारों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि हर समाचार को ये पत्रकार भारत की निवर्तमान सरकार के खिलाफ इस्तेमाल करते हैं।
यहां उद्देश्य वर्तमान सरकार का बचाव नहीं अपितु पत्रकारिता के उच्च मानदंडों का रक्षण है जहाँ ऐसा न प्रतीत हो कि संवाददाता अपने पूर्वाग्रहों के वशीभूत होकर रिपोर्टिंग कर रहा है। सरकार की आलोचना हर पत्रकार का  कर्तव्य है पर यह आलोचना व्यक्तिपरक न होकर वस्तुपरक होनी चाहिए। एक मूर्धन्य पत्रकार ने सबके सामने माना कि उसने सन 2002 में हुई गुजरात हिंसा के लिए व्यर्थ हो नरेंद्र मोदी को निशाना बनाया। पर इतना मात्र कह देने से ही तो इति नहीं हो जाती। जानबूझकर की गई गलती को क्षमा नहीं किया जा सकता। सोशल मीडिया के आविर्भाव के साथ ही समाचारों में परोसा गया हर झूठ पकड़ा जाने लगा है। अब आप गलत समाचार परोसकर भाग नहीं सकते। अब हर जागरूक नागरिक के पास अब आवाज़ है और वो खुद एक पत्रकार है। 
अगर पत्रकारिता को अपनी साथ बचानी है तो उसे सत्य के साथ चाहे वो कितना भी अप्रिय क्यों न हो, खड़ा होना ही पड़ेगा। आखिरकार पत्रकारिता को प्रजातंत्र का प्रहरी यूँ ही तो नहीं कहा गया है।
-मनोज कुमार मिश्र
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