झारखण्ड के अमर स्वाधीनता सेनानी और क्रांतिदर्शी तेजपुंज बिरसा मुंडा-अशोक “प्रवृद्ध”
19 वीं सदी के अंतिम वर्षों में मुंडा जनजातियों के महान आन्दोलन उलगुलान को नेतृत्व प्रदान करने वाले आदिवासी जननायक वीर बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखण्ड प्रदेश के राँची जिला के उलीहातू (उलिहतु) ग्राम में हुआ था, जिन्होंने जनजाति लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया था। झारखण्ड के अमर स्वाधीनता सेनानी और क्रांतिदर्शी तेजपुंज बिरसा अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध बिरसा मुंडा के आह्वान पर जनजातीय समाज ने स्वाभिमान की लड़ाई लड़ी थी। जिनके उलगुलान और बलिदान ने उन्हें भगवान बना दिया। बिरसा मुंडा के पिता का नामा सुगना मुंडा तथा माता का नाम करमी हातू था । बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में मुंडाओं के महान आन्दोलन उलगुलान को अंजाम दिया। बिरसा को मुंडा समाज के लोग भगवान के रूप में पूजते हैं। मुंडा आदिवासियों को अंग्रेज़ों के दमन के विरुद्ध खड़ा करके बिरसा मुंडा ने यह सम्मान अर्जित किया था। मुंडा रीति रिवाज के अनुसार उनका जन्म बृहस्पतिवार को होने के कारण इसी के हिसाब से बिरसा रखा गया था। उनके जन्म के पश्चात उनका परिवार रोजगार की तलाश में उलिहतु से कुरुमब्दा आकर बस गया जहाँ वो खेतो में काम करके अपना जीवन चलाते थे। उसके बाद फिर काम की तलाश में उनका परिवार बम्बा चला गया। बिरसा का परिवार वैसे तो घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करता था लेकिन उनका अधिकांश बचपन चल्कड़ में बीता था। बिरसा बचपन से अपने दोस्तों के साथ रेत में खेलते रहते थे और थोडा बड़ा होने पर उन्हें जंगल में भेड़ चराने जाना पड़ता था। जंगल में भेड़ चराते वक़्त समय व्यतीत करने के लिए वे बाँसुरी बजाया करते थे और कुछ दिनों बाँसुरी बजाने में उस्ताद हो गये थे। उन्होंने कद्दू से एक तार वाला एक वाद्य यंत्र तुइला बनाया था जिसे भी वो बजाया करते थे। उनके जीवन के कुछ रोमांचक पल गाँव के अखारा में बीते थे।
गरीबी के इस दौर में बिरसा को उनके मामा के गाँव अयुभातु भेज दिया गया। अयुभातु में बिरसा दो साल तक रहते हुए वहाँ के स्कूल में पढने जाते थे। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढ़ने आये। बिरसा पढाई में बहुत होशियार थे इसलिए स्कूल चलाने वाले जयपाल नाग ने उन्हें जर्मन मिशन स्कूल में दाखिला लेने को कहा। उस समय क्रिस्चियन स्कूल में प्रवेश लेने के लिए इसाई धर्म अपनाना जरुरी हुआ करता था तो बिरसा ने धर्म परिवर्तन कर अपना नाम बिरसा डेविड रख दिया जो बाद में बिरसा दाउद हो गया था।उनके पिता, चाचा, ताऊ सभी ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। बिरसा के पिता सुगना मुंडा जर्मन धर्म प्रचारकों के सहयोगी थे। बिरसा का बचपन अपने घर में, ननिहाल में और मौसी की ससुराल में बकरियों को चराते हुए बीता। बाद में उन्होंने कुछ दिन तक चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल में शिक्षा ग्रहण की। परन्तु स्कूलों में आदिवासी संस्कृति का उपहास किया जाता था, जो बिरसा को सहन नहीं हुआ। इस पर उन्होंने भी पादरियों और उनके इसाई धर्म का भी मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। इससे चिढ़कर ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन्हें स्कूल से निकाल दिया।
बिरसा मुंडा को उनके पिता के द्वारा जब मिशनरी स्कूल में भर्ती किया था , तो वहाँ उन्हें ईसाइयत का पाठ पढ़ाया गया। कहा जाता है कि बिरसा ने कुछ ही दिनों में यह कहकर कि ‘साहेब साहेब एक टोपी है’ स्कूल से नाता तोड़ लिया। 1890 के आसपास बिरसा वैष्णव धर्म की ओर मुड गए, जो आदिवासी किसी महामारी को दैवीय प्रकोप मानते थी उनको वे महामारी से बचने के उपाय समझाते। मुंडा आदिवासी हैजा, चेचक, सांप के काटने बाघ के खाए जाने को ईश्वर की मर्ज़ी मानते, बिरसा उन्हें सिखाते कि चेचक-हैजा से कैसे लड़ा जाता है ।बिरसा अब धरती आबा यानी धरती पिता हो गए थे। इसके बाद बिरसा के जीवन में एक नया मोड़ आया। उनका स्वामी आनन्द पाण्डे से सम्पर्क हो गया और उन्हें हिन्दू धर्म तथा महाभारत के पात्रों का परिचय मिला। ऐसा कहा जाता है कि 1895 में कुछ ऐसी आलौकिक घटनाएँ घटीं, जिनके कारण लोग बिरसा को भगवान का अवतार मानने लगे। लोगों में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं। इस कारण जन-सामान्य का बिरसा में काफ़ी दृढ़ विश्वास हो चुका था, इससे बिरसा को अपने प्रभाव में वृद्धि करने में मदद मिली। लोग उनकी बातें सुनने के लिए बड़ी संख्या में एकत्र होने लगे। बिरसा ने पुराने अंधविश्वासों का खंडन किया। लोगों को हिंसा और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह दी। उनकी बातों का प्रभाव यह पड़ा कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या तेजी से घटने लगी और जो मुंडा ईसाई बन गये थे, वे फिर से अपने पुराने धर्म में लौटने लगे।धीरे-धीरे बिरसा का ध्यान मुंडा समुदाय की ग़रीबी की ओर गया। आज की तरह ही आदिवासियों का जीवन तब भी अभावों से भरा हुआ था। न खाने को भात था न पहनने को कपड़े। एक तरफ ग़रीबी थी और दूसरी तरफ इंडियन फारेस्ट एक्ट 1882 ने उनके जंगल छीन लिए थे। जो जंगल के दावेदार थे, वही जंगलों से बेदख़ल कर दिए गए। यह देख बिरसा ने हथियार उठा लिए. उलगुलान शुरू हो गया था। आदिवासियों का संघर्ष अट्ठारहवीं शताब्दी से चला आ रहा है। 1766 के पहाड़िया-विद्रोह से लेकर 1857 के ग़दर के बाद भी आदिवासी संघर्षरत रहे। सन 1895 से 1900 तक बीरसा या बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ऊलगुलान चला। आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-ज़मीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे। 1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन की लड़ाई छेड़ी थी। बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी जंग का ऐलान किया। ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, क़र्ज़ के बदले उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेते थे। यह मात्र विद्रोह नहीं था. यह आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था।
बिरसा हमेशा से ही अपने इलाके की ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी अत्याचार के कारण हुई बुरी दशा पर सोचते रहते थे। 1984 में मानसून के छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैलने पर बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की। बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की भरपूर सहायता की और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें झारखण्ड के लोग धरती बाबा के नाम से पुकारने और पूजने लगे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। बिरसा मुंडा ने किसानों का शोषण करने वाले ज़मींदारों के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा भी लोगों को दी। यह देखकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें लोगों की भीड़ जमा करने से रोका। बिरसा का कहना था कि मैं तो अपनी जाति को अपना धर्म सिखा रहा हूँ। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार करने का प्रयत्न किया, लेकिन गांव वालों ने उन्हें छुड़ा लिया। शीघ्र ही वे फिर गिरफ़्तार करके दो वर्ष के लिए हज़ारीबाग़ जेल में डाल दिये गये। बाद में उन्हें इस चेतावनी के साथ छोड़ा गया कि वे कोई प्रचार नहीं करेंगे।
परन्तु बिरसा कहाँ मानने वाले थे। छूटने के बाद उन्होंने अपने अनुयायियों के दो दल बनाए। एक दल मुंडा धर्म का प्रचार करने लगा और दूसरा राजनीतिक कार्य करने लगा। नए युवक भी भर्ती किये गए। इस पर सरकार ने फिर उनकी गिरफ़्तारी का वारंट निकाला, किन्तु बिरसा मुंडा पकड़ में नहीं आये। इस बार का आन्दोलन बलपूर्वक सत्ता पर अधिकार के उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ा। यूरोपीय अधिकारियों और पादरियों को हटाकर उनके स्थान पर बिरसा के नेतृत्व में नये राज्य की स्थापना का निश्चय किया गया। 1 अक्टूबर 1894 को नौजवान बिरसा मुंडा ने सभी मुंडाओं को एकत्र कर अंग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन आरम्भ कर दिया। जिसके कारण 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और दो वर्ष के कारावास की सजा सुनकर हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में कैद कर लिया गया। 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के मध्य युद्ध होते रहे, जिसमें बिरसा और उनके सहयोगियों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं। जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर , जब बिरसा अपनी एक जनसभा को सम्बोधन कर रहे थे, तब अंग्रेजों से एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे।24 दिसम्बर, 1899 को यह आन्दोलन आरम्भ हुआ। तीरों से पुलिस थानों पर आक्रमण करके उनमें आग लगा दी गई। सेना से भी सीधी मुठभेड़ हुई, किन्तु तीर कमान गोलियों का सामना नहीं कर पाये। बिरसा मुंडा के साथी बड़ी संख्या में मारे गए। उनकी जाति के ही दो व्यक्तियों ने धन के लालच में बिरसा मुंडा को गिरफ़्तार करा दिया। इस तरह बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये। 9 जून, 1900 ई. को रांची जेल में उनकी मृत्यु हो गई। शायद उन्हें विष दे दिया गया था। लेकिन लोक गीतों और जातीय साहित्य में बिरसा मुंडा आज भी जीवित हैं। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है। सच ही, मौजूदा केन्द्रीय कैबिनेट ने भगवान बिरसा मुंडा की जयंती 15 नवम्बर को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में घोषित करने की मंजूरी देकर देश के जनजातियों को प्रसन्न होने और गौरवान्वित महसूस करने का अवसर प्रदान किया है।
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