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भारतीय शिक्षा और विदेशी विद्वान

भारतीय शिक्षा और विदेशी विद्वान

विश्व में सबसे पहले शिक्षा का प्रकाश भारत हीं फैला था ,फिर भारत ने इससे जगत को प्रकाशित कियाहमारे शास्त्र कहते हैं -
विद्ययाऽमृतमश्नुते॥
शुक्ल यजुर्वेद 40 / 14, ईशोपनिषद् 1/11 ,एवं मनुस्मृति 12/103 । की घोषणा या "सा विद्या या विमुक्तय"
विष्णु पुराण 1/19 /41
या सर्वे भद्राणि पश्यंतु या सर्वे संतु निरामयाः या वसुधैव कुटुम्बकम् आदि सूक्ति -वाक्य अन्यत्र कहीं संस्कृत भाषाओं को छोड़कर नहीं मिलते ।संस्कृत भाषा इस आर्यावर्त , जो आज भारत है की राष्ट्रभाषा हुआ करती थी । आज भी बाहर में भारतीय डिग्रियों की धूम मची रहती हैं । विद्वान होने का अर्थ है संस्कृत का जानकार होना ।इन्हीं गुणों के वशीभूत होकर इंग्लैंड के शासक बिलियन जोंस भारतीय शिक्षा पर इतना मुग्ध हुए ।उन्होने भारतीय संस्कृति -संस्कार,साहित्य और दर्शन की ख्याति सुन रक्खी थी ,इसलिए वे भारतीय साहित्य एवं दर्शन को आदर्श मानते थे और वे भारत के अध्यात्म- साहित्य, संस्कृति ,दर्शन एवं शिक्षा पद्धति का अध्ययन करना चाहते थे । इसके लिए वे इंडियन एडमिनिस्ट्रेशन में भाग लेकर या किसी विध भारत आना चाहते थे ।
बहुत दिनों के बाद एक लंबे प्रयास के उपरांत उन्हें यह अवसर मिल गया और वे भारत के सुप्रीम कोर्ट के न्ययाधीश होकर कोलकाता आ गए ।उन दिनों इन्डिया का सुप्रीम कोर्ट कोलकाता में हुआ करता था । कहा जाता है कि कोलकाता में समुद्र से उतरने के बाद उन्होंने भारत की मिट्टी को प्रणाम किया ,फिर उस मिट्टी का तिलक लगाया तब उन्होंने यहां की धरती पर अपने पैर रक्खे । भारत प्रवास के पहले ही दिन से उन्होने भारत की संस्कृति और संस्कार जानने की इच्छा प्रकट की,परंतु सूत्रों ने बताया कि वह सभी ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं । उनके अध्ययन के लिए संस्कृत भाषा की जानकारी आवश्यक है ।अब उनकी खोज एक गुरु की हो गई जो संस्कृत पढ़ा सकें । कोई भी संस्कृत के पंडित अंग्रेजों के रहन-सहन ,असन बसन ,भोजन-भजन की अशुद्धता के कारण उनके संपर्क में नहीं आना चाहते थे । तीन महीने बीत गए ,किंतु विलियम जॉन्स को एक संस्कृत सिखाने वाले शिक्षक नहीं मिले । इसी क्रम में कोलकाता के कृष्णा नगर के महाराज शिवचंद सिंह जी से इनकी मित्रता हो गई । महाराज शिव चंद्र सिंह को उन्होंने यह कार्य, एक गुरु खोजने का कार्य सौंप दिया ।परंतु राजा साहब इस कार्य में सफल नहीं हुए। तीन महीने का अवसर यूं ही चला गया ।राजा साहब के अथक प्रयास के बाद कवि भूषण जी ने यह कार्य सशर्त स्वीकारा । प्रथम मुलाकात में ही पंडित कवि भूषण जी ने शर्त रखी -
1-आप भारतीय शिक्षा ग्रहण करना चाहते हैं तो शिक्षा की तरह आपको भी भारतीय गुण अपनाने होंगे ।
2- जहां हम आपको शिक्षा देंगे वह कमरा भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण होना चाहिए ।
3- पढ़ने का कक्ष नित गंगाजल से धोया जाना चाहिए ।पवित्रीकरण आवश्यक होगा ।
4- गुरु आसन (आचार्य जी का आसन )ऊंचा होना चाहिए ।आपको जमीन पर बैठकर पढ़ना होगा ।
5- गुरु आसन सहित कमरे की सफाई एवं गंगाजल से पवित्रीकरण के उपरांत उसे सुगंध युक्त करना होगा ।
6- अध्ययन के पूर्व गंगा में स्नान कर दो वस्त्रों में ही आना होगा और आपको अध्ययन करना होगा ।इसमें धोती और एक चादर होगी ।।
7-सातवा अध्ययन काल में आपको मांस ,मदिरा, धूम्रपान आदि का सेवन बंद रखना होगा ।हो सकता है यह आदेश सदा के लिए मानना पड़े ।
8- अध्ययन काल में चोटी रखनी होगी ।इसे अध्ययन के बाद बांधना होगा।
9- गुरु का अनुशासन सर्वश्रेष्ठ माना जाएगा ।
10- इतना करने के उपरांत आपको तीन चीजें आएंगी -श्रद्धा, तत्परता सक्रियता ।
जान्स साहब को सीखने की ऐसी तत्परता थी कि उन्होंने आचार्य कवि भूषण जी की सारी शर्तें मान ली । आनन-फानन में व्यवस्था की गई ।नीचे का पूरा तल्ला भारतीय ढंग से तैयार कराया गया । गंगा जल से धोया गया ।नित्य सुगंधित धूप की व्यवस्था की गई । गुरुजी का उच्चासन तैयार किया गया ।उनकी जमीन पर आसन लगाई गई। पूरी कोठी को अभक्ष्य भोजन से मुक्त कर दिया गया ।यहां तक कि मदिरा सेवन भी बंद करा दिया गया । विद्या अध्यन का मुहुर्त देखा गया । माघ शुक्ल पंचमी को विद्याध्यन आरंभ किया गया ।पूर्ण भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण कोठरी में गुरुजी ने आसन जमाया ।गंगा में स्नान कर एक धोती और एक चादर में जॉन साहब बिना कुछ लिए ही गुरु जी को प्रणाम करते । उनकी आज्ञा से मात्र एक कप चाय लेकर अध्ययन में जुट जाते । गुरु कृपा ऐसी हुई कि कुछ ही दिनों में जॉन साहेब संस्कृत के विद्वान बन गए। उन्होंने संस्कृत की विशेषता पर मुख्य थे ।उन्होंने कई संस्कृत की पुस्तकों का प्रणयण किया । कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी भाषा में उसका अनुवाद किया । संस्कृत के प्रभाव के कारण सर विलियम जॉन्स ने लंदन की रॉयल सोसाइटी ,तथा एसिया में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की । भारत में श्रद्धा रखने के कारण जॉन साहब ने 1884 में कोलकाता में भी एसियाटिक सोसाइटी की स्थापना कर डाली ।यह विवरण लार्ड टीन माउथन द्वारा सर विलियम जोंस पर लिखी पुस्तकों में विस्तार से मिलता हैं जो छः जिल्दों में प्रकाशित है । इनकी अंग्रेजी में अनूदित कालिदास द्वारा रचित शकुंतला नाटक को बेस्ट बुक ऑफ वर्ल्ड का खिताब मिल चुका है । भारतीय मसालों के प्रति विशेष अभिरुचि के कारण उन्होंने पुस्तक मशालों पर ही एक अच्छी पुस्तक भी लिखी जिसे बर्ल्ड सोसाइटी ऑफ यूनिटी ने सम्मानित किया ।
इससे हमारे युवा बंधुओं को सीख लेनी चाहिए जो विदेशी भाषा,भाषण, भूषा, भूषण ,भोजन, भजन के दिवानें हो जाते हैं । भारतीयता को भूलकर पश्चिम की सभ्यता को अपनाने में अपनी गरिमा समझते हैं। गुरु के प्रति श्रद्धा का भाव नहीं रखते हैं , विद्या नहीं प्रमाण पत्र के पीछे दौड़ते हैं और संस्कार को भुलाकर पाश्चात्य शैली में काम करना चाहते हैं । यह भारतीयता, भारत ,भारती की कृपा ,भारत की भाषा का प्रभाव तथा उसका चमत्कार ही है । यही है अपना अजेय भारत । भारत माता की जय ! डॉ सच्चिदानंद प्रेमी
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