बहुत बड़ा अँगना एक गहरा कुँआ ,
वर्षो पूराना पेड़ डरावना था मुआ -
मिट्टी की चार फिटा , ढ़हती चारदिवारी ,
बस गिरने को खड़ी थी जर्जर केवाड़ी -
ढ़ाबे मे ही आठ नौ सदस्य समा जाते ,
बोरा पर खाते , खटिया पर सो जाते -
लाज रखती थी प्रतिष्ठा का ख्याल ,
चादर ओढ़ ,खड़ा खटिया बनता दिवाल -
एक पारिवारिक मुखिया संचालक थे ,
दो एक कर्मयोगी परिवार पालक थे -
पंक्तिबद्ध बैठ जाते बूढ़े बच्चे जवान ,
ढाबें मे थी चुहानीं अमृत थे पकवान -
सूखी लकड़ी थी चूल्हे की ईंधन ,
पका देती थी ममतायुक्त स्वादिष्ट भोजन -
त्रस्त तंगहाली मे भी खुशहाली थी ,
संसारिक घर सुबह होली शाम दीवाली थी -
फिर घर बड़ा दलान दो मंजिला हो गया ,
हर सदस्य स्वभाव से लाल पीला हो गया -
दलानो में ही दीवारों का हो गया बसेरा ,
कमरा दर कमरा हुआ मिया बीबी का डेरा -
लुप्त सा हुआ संबंधो मे श्रद्धा संग सम्मान ,
साहब है श्रीमती और अब गुलाम है श्रीमान -
कांच के खिड़की पर पर्दे का कर इंतजाम ,
बैठका डाइनिंग , चुहानी का रखा हैं किचन नाम -
अंधी आधुनिकता के संक्रमण का घाव ,
चबा गया संस्कृति समाज घर परिवार गाँव -
बालकनी बना आँगन भूला तारों संग बादलों का ज्ञान ,
पहले का घर , पूरा मकान - दो कमरे और बड़ा दलान -
उसमें समाये दस बारह बड़े सदस्य कुछ छोटे प्राण
वो चुहलबाजी अपनापन अब तो सपना हैं श्रीमान - ? !!
विनयबुद्धि,,
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