नवपद
गोपी की पीर अथाह रही
मधुवन क्यों रहे हरे !
निर्मल भक्ति सूर दे गये
फिर भी हम न सुधरे।
बदले पीर के अर्थ।
साधो, जग की रीति अनर्थ।।
पति-पत्नी, भ्राता, सेवक सब
तुलसी के आदर्श,
रहे मूढ़वत हम ज्यों के त्यों
कर नहीं सके विमर्श।
कौन करे तदर्थ।
साधो, जग की रीति अनर्थ।।
मुहफट बोल गये कबीर
उलटवाँसी की वाणी,
पिया राम तो बन न पाये
बदली न दुल्हन की कहानी।
हम नहीं हुए समर्थ।
साधो जग की रीति अनर्थ।।
जूठी पत्तल चाट रहे
कवि के भिक्षुक अब भी,
'कफन' नहीं दे पाते देखो
अब भी बेटे-बाप सभी।
सारे कथन हुए व्यर्थ।
साधो जग की रीति अनर्थ।।
-- माधव
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