Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

नवपद

नवपद

गोपी की पीर अथाह रही 
मधुवन क्यों रहे हरे ! 
निर्मल भक्ति सूर दे गये
फिर भी हम न सुधरे।

बदले पीर के अर्थ।
साधो, जग की रीति अनर्थ।।

पति-पत्नी, भ्राता, सेवक सब
तुलसी के आदर्श,
रहे मूढ़वत हम ज्यों के त्यों
कर नहीं सके विमर्श।

कौन करे तदर्थ।
साधो, जग की रीति अनर्थ।।

मुहफट बोल गये कबीर 
उलटवाँसी की वाणी,
पिया राम तो बन न पाये 
बदली न दुल्हन की कहानी।
 
हम नहीं हुए समर्थ।
साधो जग की रीति अनर्थ।।
जूठी पत्तल चाट रहे                                                       
कवि के भिक्षुक अब भी,
'कफन' नहीं दे पाते देखो
अब भी बेटे-बाप सभी।

सारे कथन हुए व्यर्थ।
साधो जग की रीति अनर्थ।।

-- माधव
दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ