देवी के नाम अर्थ में सरल ही हैं
संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोsधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूतिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
यहाँ देवी के नाम अर्थ में सरल ही हैं। विंध्यवासिनी और महिषासुरमर्दिनी जैसे नामों से आमतौर पर बुलाया ही जाता है। गिरिनान्दिनी में वही पर्वत की पुत्री हैं। विष्णुविलासिनी नाम में वही लक्ष्मी हो जाती हैं। रम्य का अर्थ सुन्दर होता है और कपर्दिनी का अर्थ लम्बे केश या जटाओं वाली हुआ।
शिति हिमालय के क्षेत्र में मिलने वाला एक पेड़ होता है जिसकी छाल से गाढ़ा नीला-काला रंग बनता है। पुराने जमाने में लिखने के लिए इससे स्याही बनती थी। इसलिए शितिकण्ठ का मतलब यहाँ नीलकण्ठ – शिव हुए और उनकी कुटुम्बिनी पार्वती को कहा जा रहा है। नन्दितमेदिनी नाम के पीछे थोड़ी सी लम्बी कहानी हो जाती है। श्री दुर्गा सप्तशती का पहला अध्याय मधु-कैटभ नाम के राक्षसों के उत्पन्न होने और उनके वध पर है।
जब ये उत्पन्न हुए थे तो प्रलय का काल था और सारा विश्व जल से डूबा हुआ था। मधु-कैटभ ने हर ओर जल देखकर संभवतः ये मान लिया होगा कि जल के अलावा कुछ है ही नहीं। जल वाले स्थान, गीले स्थान पर उनकी मृत्यु न हो, उन्होंने यही वर माँगा था। प्रथम चरित्र यानि श्री दुर्गा सप्तशती के पहले अध्याय में हमें ये पता चलता है कि भगवान विष्णु ने जल हीन स्थान पर उनका वध करने के लिए अपनी जाँघों पर रखकर उनका सर काट लिया था। मगर कथा यहीं समाप्त नहीं होती।
राक्षसों के सर काटे जाने से बहुत सी वसा-चर्बी निकली। वसा-चर्बी को मेद कहा जाता है, मेद से युक्त होने के कारण सागर भरा और पृथ्वी फिर से उभर आई। मेद (वसा) से युक्त होने के कारण पृथ्वी का नाम मेदिनी पड़ा और वो अभक्ष्य मानी जाने लगी। पूरी पृथ्वी को सुख प्रदान करने के कारण देवी का एक नाम नन्दितमेदिनी कहा गया है। महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र के पहले श्लोक का दुर्गा सप्तशती के पहले अध्याय, प्रथम चरित्र से सम्बन्ध के रूप में भी नन्दितमेदिनी नाम को देखा जा सकता है।
#शारदीय_नवरात्र
स्थायी भाव मन में होते ही है। भय, क्रोध, प्रेम, शोक या वात्सल्य जैसे भाव किसी के मन में बिलकुल ही न हों, ऐसा नहीं होता। ये हर समय प्रकट नहीं होते। इनके प्रकट होने के लिए किसी कारण की जरूरत होती है। इस कारण को “विभाव” कहा जाता है। इन स्थायी भावों को प्रकट या व्यक्त करने वाली चेष्टाएं अनुभाव कहलाती हैं। जैसे कोई छोटी सी मुस्कुराती बच्ची अगर खेलती हुई आपकी तरफ बढ़े तो वात्सल्य का स्थायी भाव अपने आप इस कारण की वजह से प्रकट होगा। हो सकता है वात्सल्य के भाव को प्रकट करने के लिए आप बच्ची को गोद में उठा लें या मुस्कुरा पड़ें। इन स्थायी भावों के साथ कुछ संचारी भी होते हैं, जैसे उन्माद या निद्रा जो थोड़ी ही देर के लिए स्थायी भाव का साथ देने प्रकट होते हैं।
भरत मुनि के नाट्य शास्त्र के मुताबिक इन चारों (स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी) के संयोग से “रस” उत्पन्न होता है। ये वो रस है जिसके बारे में संभवतः कविताओं की व्याख्या में पढ़ा होगा, जैसे वीर रस की कविता, या श्रृंगार रस की कविता। कुल नौ प्रमुख रसों के अलावा बाद में वात्सल्य और भक्ति को भी दसवां और ग्यारहवां रस माना जाने लगा। साहित्य, नाटक आदि से थोड़ा भी परिचय हो तो वीर रस, भक्ति, हास्य और सबसे ज्यादा श्रृंगार परिचित लगेगा। हिन्दी में धीरे धीरे भयानक और वीभत्स रस गायब होने लगे हैं। ऐसा भक्ति काल के आने के साथ ही होने लगा था। गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरितमानस में सुन्दरकाण्ड देखेंगे तो भक्ति दिखेगी, लेकिन वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड जैसा रौद्र और भयानक रस शायद ही दिखे।
वीभत्स रस कोई रस भी हो सकता है, ये समझना हिंदी पाठकों के लिए थोड़ा मुश्किल हो सकता है। हाल फिलहाल में इस रस में कोई विख्यात रचनाएं नहीं आईं हैं। इसके लिए थोड़ा सा पीछे चलिए तो एक बदनाम से लेखक सहादत हसन मंटो की याद आती है। उनकी कहानियां बहुत छोटी-छोटी सी होती थीं, अगर पढ़ी हों तो याद भी रह जायेंगी। सोचिये कि उनको कौन सा रस कहेंगे? भयानक रस या कई बार वीभत्स रस? हिंदी पट्टी में इसे समझना थोड़ा नया होता है, लेकिन अंग्रेजी की सॉ या फिर हॉस्टल जैसी फ़िल्में देखी हों, या वो कितनी प्रचलित हैं ये पता हो तो वीभत्स रस को समझना भी मुश्किल नहीं। जब देवी के स्वरुप की बात होती है तो वो भयावह से बढ़ते हुए कई बार वीभत्स की तरफ जाता है। जैसे हमारे लिए फिल्मों, साहित्य वगैरह में कोई भयावह या वीभत्स रस होता है ये समझना मुश्किल है, वैसे ही विदेशियों और मैकले मॉडल के मानस पुत्रों-पुत्रियों के लिए देवी के स्वरूपों को समझना भी मुश्किल हो जाता है।
आर्थर एवलोन के छद्म नाम से लिखने वाले ब्रिटिश सर जॉन वुडरोफ्फ ने 1920 के आस पास के दौर में तंत्र और कुण्डलिनी जैसे सिद्धांतों पर लिखी गई कई किताबों का अनुवाद किया था। विदेशियों की तंत्र में रूचि की एक बड़ी वजह उनका लिखना ही रहा है। उनके लिखने से पहले तक कम जानने वालों में इसके सकारात्मक पहलु पर कम और किसी दुष्टता या नीचता की तरह इसकी समझ बनी हुई थी। मैकले मॉडल के मानस पुत्रों-पुत्रियों के लिए अब भी इसे समझना मुश्किल ही होता है। भारतीय लोग भी हिन्दुओं के मंदिरों को वो संवैधानिक अधिकार नहीं देते जो भारत में ही दूसरे मजहबों के पूजा स्थलों या मजहबी रिवाजों को आसानी से मिलते हैं। इसका उदाहरण पिछले साल 28 सितम्बर को सबरीमाला पर हमले में दिखा था और इस वर्ष ये त्रिपुरा के उच्च न्यायलय के फैसले में नजर आया। उच्च न्यायलय ने सन 15 अक्टूबर 1949 को महारानी कंचन प्रभा देवी और भारत के गवर्नर जनरल के बीच हुए समझौते को बूटों तले रौंदते हुए त्रिपुरसुन्दरी मंदिर की बलि प्रथा को बंद करने का तुगलकी फरमान सुनाया है।
इसकी तुलना में नवरात्र को देखें तो उसमें किसी अब्रह्मिक मजहब जैसा सबके लिए एक ही व्यवस्था का दुराग्रह और जबरदस्ती नहीं होती। कोई शाकाहारी पूजा करता है तो किसी मांसाहारी पर प्रतिबन्ध भी नहीं है। गृहस्थ अगर पूजा-पाठ के वैष्णव तरीके प्रयोग में लाये तो भी ठीक और तांत्रिक या अघोरपंथ की विधियों को ओछा भी नहीं माना जाता। कम से कम जानकारी के साथ पूजा करने वालों को भी तीसरे दिन चंद्रघंटा देवी की उपासना का पता होता है। ये देवी मस्तक पर घंटे के आकार का चंद्रमा धारण करने के लिए चंद्रघंटा नाम से जानी जाती हैं। ये युद्ध को उद्दात्त होती हैं और इनकी उपासना वीरता, कीर्ति या यश जैसी कामना से की जाती है। मोटे तौर पर समझें तो किसी से पहली मुलाकात में ही उसका अगर आपपर काफी प्रभाव पड़ता लगे तो उसे देवी चंद्रघंटा की दी सिद्धियाँ माना जा सकता है। तीसरे दिन साधक “मणिपूर” चक्र में प्रविष्ट होता है। अब इससे भी त्रिपुरसुन्दरी के त्रिपुरा वाले राज्य के आस-पास का कोई राज्य याद आये तो इसमें मेरी गलती नहीं।
कुछ कथाएँ देवी चंद्रघंटा को शिव-पार्वती के विवाह के अवसर से भी जोड़ती हैं। पार्वती से विवाह के लिए जब शिव चले तो उनके साथ उनके गण भी थे। पहले तो शिव का ही रूप भस्म लगाए, जटा-जूट धारी, ऊपर से उनके गण भी भूत-प्रेत, अघोरी इत्यादि रूपों में! ऐसी बरात को देखते ही राजा हिमवान घबराये और पार्वती की माता मेनावती देवी बेहोश ही हो गयीं! ये कैसा वर अपने लिए चुना है सोचकर बारातियों का स्वागत करने जुटे लोग घबरा रहे थे कि पार्वती ने चंद्रघंटा का रूप धारण किया। मस्तक पर अर्धचन्द्र, सिंह की सवारी और दस भुजाओं में त्रिशूल, गदा, धनुष-बाण, खड्ग, कमल, घंटा, कमंडल और अभयमुद्रा धारण किये इस देवी ने शिव को शांत किया। सौम्य रूप वाले शिव से पार्वती का विवाह संपन्न हुआ। देवी चंद्रघंटा के साथ चंद्रेश्वर (शिव) होते हैं। युद्ध के लिए तैयार या उत्सुक ऐसे स्वरुप पर धर्म को न समझने वालों की कितनी आस्था होगी?
दूसरे कई मजहबों में भारत की तरह देवियों की उपासना की कोई परंपरा नहीं। वहां देवता या पूज्य केवल पुरुष ही हो सकते हैं। देवता तो छोड़िये, देवदूत भी स्त्रियाँ नहीं होतीं। हिन्दुओं की तरह विभिन्नता को अपने बराबर सम्मान देने के बदले आमतौर पर वो दूसरों के लिए पैगन, हीदेन या काफ़िर जैसे नीचा दिखाने वाले शब्द भी इस्तेमाल करते हैं। इन सबके बीच भारत में दुनियां में सबसे लम्बे समय से लगातार जारी देवी उपासना की परम्परा कायम है। ये गौर करने लायक है कि ऐसे मजहबों ने जहाँ भी आक्रमण किया वहां से स्थानीय लोगों के धर्म और संस्कृति का समूल नाश कर डाला। एक भारत ही है जहाँ हिन्दुओं ने विविधताओं के शत्रुओं के लगातार आक्रमणों के बीच भी अपनी पहचान को कायम रखा है।
कुचले जाने का सबसे लम्बे समय से लगातार प्रतिरोध जारी रखने वाले सनातनी परम्परा के सभी सेनानियों को नवरात्र की शुभकामनाएँ!
दुर्गा सप्तशती का पाठ कुंजिका स्तोत्र के बिना हीन माना जाता है। अब ये कुंजिका स्तोत्र कौन किसे सिखा रहा होता है? इसका जवाब उसके अंत में है जहाँ “श्रीरुद्रयामले गौरीतन्त्रे शिवपार्वती संवादे” लिखा हुआ है। अगर स्त्रियों के लिए पाठ वर्जित होता तो भगवान शिव खुद ही अपनी पत्नी को सिखाने जैसी हरकत क्यों करते?
जहाँ तक पाठ की विधि का प्रश्न है चिदम्बर संहिता में पहले अर्गला फिर कीलक और अंत में कवच पढ़ने का विधान है। योगरत्नावाली में पाठ का क्रम बदल जाता है और वहां पहले कवच (बीज), फिर अर्गला (शक्ति) और अंत में कीलक पढ़ने का विधान है। गीता प्रेस वाली दुर्गा सप्तशती में ठीक से देखने पर ये मिल जायेगा।
उसके अलावा पाठ विधि के अंतर देखेंगे तो मेरु तंत्र, कटक तंत्र, मरिचिकल्प आदि में भी थोड़े बहुत अंतर मिल जायेंगे। दुर्गा सप्तशती के लिए कई विधियाँ तंत्रों में हैं और करीब उतनी ही वैदिक रीतियों में भी हैं। कोई दिन में एक चरित्र पढ़े, कोई केवल एक अध्याय, कोई पूरी ही हर दिन पाठ करे, ये सभी संभव हैं।
सकाम और निष्काम के पक्ष से देखें तो सुरथ और समाधी नाम के दो लोगों पर इसकी कहानी शुरू होती है। राजा सुरथ को इस जन्म में राज्य और आगे सावर्णिक (जिनके नाम से मन्वन्तर है) ऐसे राजा होने का वरदान मिला था। समाधी ने अहंकार आदि से मुक्ति मांगी तो उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इसलिए अलग अलग फल भी संभव हैं।
हाँ, जैसे स्कूल में गणित (मैथ्स) के शिक्षक से हिंदी व्याकरण के सवाल पूछने नहीं पहुँच जाते थे, वैसे ही हर ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे से सलाह मत लीजिये। पूछना ही हो तो जो कोई 10-20 साल से पूजा करता करवाता आ रहा हो, ऐसे किसी को ढूँढने का प्रयास कीजिये। घर से निकल कर कुर्सी छोड़कर ढूंढना मुश्किल लगे तो फिर अपने मन की कीजिये।
अपराध क्षमा पाठ के अंत में “एवं ज्ञात्वा महादेवी यथायोग्यं तथा कुरु” लिखा होता है। जो होगा, सही ही होगा।
#नवरात्रि
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित
माँ -
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द्यौ: माता पृथिवी माता अदिति माता
दीप्त आकाशीय द्यौ: ऋग्वेद में पिता से अधिक माता है, पृथिवी के बिना तो यह शब्द प्रदीप्त आकाश अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। द्यौ व पृथिवी समस्त पादप व जंतु संसार के जनक हैं।
मही । द्यावापृथिवी इति । इह । ज्येष्ठे इति । रुचा । भवताम् । शुचयत्भिः । अर्कैः । यत् । सीम् । वरिष्ठे इति । बृहती इति । विमिन्वन् । रुवत् । ह । उक्षा । पप्रथानेभिः । एवैः ॥
देवी इति । देवेभिः । यजते इति । यजत्रैः । अमिनती इति । तस्थतुः । उक्षमाणे इति । ऋतवरी इत्यृतवरी । अद्रुहा । देवपुत्रे इति देवपुत्रे । यज्ञस्य । नेत्री इति । शुचयत्भिः । अर्कैः ॥
दोनों ही देवी मातायें हैं -
ते । हि । द्यावापृथिवी इति । मातरा । मही । देवी । देवान् । जन्मना । यज्ञिये इति । इतः । उभे इति । बिभृतः । उभयम् । भरीमभिः । पुरु । रेतांसि । पितृभिः । च । सिञ्चतः ॥
द्यौ: माता -
पुनः । नः । असुम् । पृथिवी । ददातु । पुनः । द्यौः । देवी । पुनः । अन्तरिक्षम् । पुनः । नः । सोमः । तन्वम् । ददातु । पुनरिति । पूषा । पथ्याम् । या । स्वस्तिः ॥
द्यौ का पिता रूप इंद्र के पुत्र रूप में भी है। इंद्र ने अपने माता पिता को जन्म दिया -
जनिता । दिवः । जनिता । पृथिव्याः । पिब । सोमम् । मदाय । कम् । शतक्रतो इति शतक्रतो । यम् । ते । भागम् । अधारयन् । विश्वाः । सेहानः । पृतनाः । उरु । ज्रयः । सम् । अप्सुजित् । मरुत्वान् । इन्द्र । सत्पते ॥
के । ऊँ इति । नु । ते । महिमनः । समस्य । अस्मत् । पूर्वे । ऋषयः । अन्तम् । आपुः । यत् । मातरम् । च । पितरम् । च । साकम् । अजनयथाः । तन्वः । स्वायाः ॥
द्यौ: देवी जननी -
मिमातु । द्यौः । अदितिः । वीतये । नः । सम् । दानुचित्राः । उषसः । यतन्ताम् । आ । अचुच्यवुः । दिव्यम् । कोशम् । एते । ऋषे । रुद्रस्य । मरुतः । गृणानाः ॥
और द्यौ देवी अदितिमाता के साथ साथ माता हुआ - द्यौ: अदिति:
विश्वा । हि । वः । नमस्यानि । वन्द्या । नामानि । देवाः । उत । यज्ञियानि । वः । ये । स्थ । जाताः । अदितेः । अत्भ्यः । परि । ये । पृथिव्याः । ते । मे । इह । श्रुत । हवम् ॥
येभ्यः । माता । मधुमत् । पिन्वते । पयः । पीयूषम् । द्यौः । अदितिः । अद्रिबर्हाः । उक्थशुष्मान् । वृषभरान् । स्वप्नसः । तान् । आदित्यान् । अनु । मद । स्वस्तये ॥
नवरात्र में माता के ९ संकेत। ✍🏻गिरिजेश राव
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