
हिंदी भाषा उत्पत्ति आवश्यकता और महत्व -मनोज कुमार मिश्र
हिन्दी वो भारतीय भाषा है जो संस्कृत के अपभ्रंश के रूप मे अवतरित हुई। सन 400 ई० मे संस्कृत के महान साहित्यकार श्री कालीदासजी ने “विक्रमोर्वशियम” नाम से अपभ्रंश काव्य की रचना की थी जिसे हम हिन्दी के आविर्भाव के रूप मे देख सकते हैं। सन 550 ई० मे भी “वल्लभी” के दर्शन मे अपभ्रंश का उपयोग हुआ है। हिन्दी के प्रथम कवि होने का श्रेय सिद्ध सरहपद को जाता है जिनहोने ने सन 769 ई० मे “दोहाकोश” लिखा। हिन्दी की पहली पुस्तक शायद देवसेन की “सकचर” थी जो सन 993 ई० मे आई। सन 1100 ई० में देवनागरी लिपि का पहला स्वरूप आया। और सन 1145-1229 ई० के बीच श्री हेमचंद्रचार्य ने “अपभ्रंश व्याकरण” की रचना की। हिन्दी जिसे हम हिन्दी के रूप मे जानते और पहचानते और नामित करते हैं सर्वप्रथम ‘हिंदवी’ के रूप मे फारसी कवि अमीर खुसरो की पहेलियों और मुकरियों मे सन 1283 ई० मे प्रयुक्त हुई। इस प्रकार हिन्दी भाषा की जो यात्रा सन 400 ई० मे शुरू हुई उसका प्रचार प्रसार व्यापक स्तर पर सन 1532-1623 ई० के बीच रचित गोस्वामी तुलसीदास की “रामायण” से हुआ। रामायण जन जन की बोली के रूप मे सभी के दिल मे उतर गयी। हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास हेतु सन 1893 ई० मे काशी मे नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की गयी। इसी सभा के तत्वधान मे 1 मई सन 1910 ई० को हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना हुई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरांत सन 1950 ई०मे हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। 10-14 जनवरी 1975 मे नागपुर मे प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन भी हुआ। इतना कुछ होने के बाद भी हिन्दी की स्थिति भारतीय समाज मे नारी की भांति दोयम दर्जे की ही रही। जहां अन्य विदेशी भाषाएँ खासकर अँग्रेजी फास्ट फूड की तरह पाँव पसार रही है वहीं हिन्दी शुद्ध दल भात तरकारी की तरह उपेक्षा का शिकार है। जिस प्रकार स्वस्थ शरीर के लिए दाल रोटी चावल आवश्यक है उसी प्रकार भावों को सजाने के लिए हिन्दी से उपयुक्त कोई भाषा नहीं है।
भारत जैसे विशाल भूभाग और विपुल संस्कृतियों वाले देश मे जहां हर बीस कोस पर पानी और दस कोस पर वाणी बदलती है, एक ऐसी संपर्क सूत्र की भाषा की आवश्यकता महसूस की गयी जो सम्पूर्ण भारत को माला के मनकों की भांति पिरो सके। जिस प्रकार माला का हर मनका अपनी उपयोगिता और उपादेयता रखता है पर जब तक एक सूत्र मे बांधा नहीं जाता अपनी सार्थकता प्रमाणित नहीं कर पाता है। उसी प्रकार इतनी सारी भाषाओं और बोलियों के होने के बाद भी संपर्क सूत्र की कड़ी के रूप मे एक सर्वमान्य भाषा की महती आवश्यकता है। ऐसी कौन सी वह भाषा हो सकती है जिसे इतनी व्यापक स्वीकार्यता हासिल हो। जिसमे भावनाओं की अभिव्यक्ति की सरलता हो। जो लाड़, दुलार, प्यार, मनुहार और रूठने जैसी भावनाओं के लिए पर्याप्त शब्दों का भंडार रखती हो। जिसे आसानी से समझा जा सके और जिसे लिखना सरल हो। जब हम इस परिपेक्ष्य मे भारत का अवलोकन करते हैं तो पाते हैं की सुदूर उत्तरपूर्व से लेकर आंध्र, कर्नाटक जैसे दक्षिणी राज्यों तक तथा पूर्व मे बंगाल से लेकर पश्चिम मे महाराष्ट्र, गुजरात तक, यहाँ तक की कश्मीर मे भी एक ही भाषा ऐसी है जो आसानी से बोली और समझी जाती है, वह है हिन्दी भाषा। अगर दक्षिणी भारत के तमिलनाडु को छोड़ दें, जहां हिन्दी विरोध की वजह मूलतः राजनीतिक है तो हम पाते हैं कि हिन्दी भाषा ही सभी जगह छाई हुई है। दक्षिण मे तमिलनाडु मे आज भी राजनीतिक दल अपने किंचित स्वार्थों की वजह से हिन्दी विरोध की चिंगारी को हवा देने की कवायद करते रहते हैं। परंतु जब आज की परिस्थितियों के विवश रोजगार की तलाश मे लोगों को जब सुदूर जाना पड़ता है तो उन्हे हिन्दी सीखनी ही पड़ती है। यह बताता है कि हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ी है। इस प्रकार हम पाते हैं कि हिन्दी ही वह कड़ी है जो इस भारत के प्रदेश रूपी मनकों को एक सूत्र मे पिरो कर भारतवर्ष की माला को रूप दे सके।
वस्तुतः हिन्दी की व्यापकता का कारण उसका गंगा स्वरूप है। जिस प्रकार गंगा अपने उद्गम से लेकर अंत तक अपने मे सारी नदियों को समाते चलती है उसी प्रकार हिन्दी ने भी अपने विशाल हृदय मे अन्य भाषाओं, बोलियों और विचारों को स्थान दिया है। आप इस भाषा मे अँग्रेजी, फ्रेंच से लेकर तमिल तेलुगू तक के शब्द पा सकते हैं। उर्दू तो जैसे इसकी सगी बहन ही हो। अतः इतनी विशाल हृदया और समदृष्टि रखने वाली भाषा का सहज रूप मे भारतीय भूभाग मे फैलते जाना स्वाभाविक है। हमने अक्सर देखा है कि हम अपनी भाषा और संस्कृति को हेय दृष्टि से देखते हैं। उसके प्रयोग मे हमे संकोच होता है जबकि विदेशी भाषाओं को हम हस कर गले लगाते हैं और सही गलत जैसा भी हो, उसके प्रयोग का प्रयास करते हैं। इसी कारण से पूरे विश्व कि सबसे समृद्ध भाषा संस्कृत जिसे कम्प्यूटर के लिए भी वैज्ञानिकों ने सबसे उपयुक्त माना है, आज भारत मे नष्ट होने के कगार पर है। आज आवश्यकता इस बात को पहचानने की है। आखिर कब तक हम “घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध” जैसे मुहावरे चरितार्थ करते रहेंगे। हिन्दी की इस दुर्दशा के पीछे उन राजनीतिक दलों का भाई बड़ा हाथ है जो अन्य भाषाओं के विकास और उत्थान के लिए तो आठ आठ आँसू बहते है पर जब हिन्दी का नंबर आता है तो इसे हिन्दी हिन्दू और हिंदुस्तान से जोड़ते हैं। एक माहौल बनाते हैं कि हिन्दी सिर्फ हिंदुओं कि भाषा है और उसे एक धर्म विशेष से जोड़ देते हैं। इस क्रम मे वे पूरी भाषा कि अनदेखी और अवमानना की जमीन तैयार करते हैं। ऐसा नहीं है की हिन्दी अन्य भाषाओं की विरोधी है। हिन्दी का स्थान खाने मे नमक सदृस है जिसके बिना खाने मे स्वाद नहीं आ सकता। यह बात विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को तो समझ मे आ गयी है जो अपने उत्पादों के विज्ञापन अब हिन्दी मे करवाने मे ज़ोर देते हैं ताकि अधिक से अधिक लोगों तक उनकी पहुँच बने पर अभी तक हमारे प्रबुद्ध वर्ग की समझ मे स्थान नहीं बना पायी है। अतः हिन्दी को अपनाना और इस भाषा मे काम करना हम सबका फर्ज़ बनता है। बोलचाल के शब्दों को अपनाना और उनका प्रयोग करना आज की आवश्यकता है। वस्तुतः हिंदुस्तान मे हमें फ्रेंच, लैटिन और अँग्रेजी दिवस मनाने की जरूरत होनी चाहिए न कि हिन्दी दिवस मनाने की। जिस दिन हम ऐसा करने मे कामयाब हो गए वह दिन हमारे आत्मसम्मान का दिन होगा। हमारे लिए सर उठाकर चलने का दिन होगा। वह दिन भी आएगा जब हम सब हिन्दी को दिल से अपनाएँगे और अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए लोगों से हिन्दी मे ही बात करेंगे।
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