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इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।

पूज्य कवि 'दिनकर' जी को, अंतस काव्यांजलि
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इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।

परशुराम  कि  कहीं   प्रतीक्षा 
कहीं  युद्ध   कुरुक्षेत्र  बना  है 
नील कुसुम खिलते बगिया में 
कहीं   मौन   हुँकार   मना  है 
अनसुलझा  साहित्य  पड़ा है 
कविता का वह बुनकर दे दो।
   
              इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।।

देकर  सिंहासन   को   झटके 
खेतों  खलिहानों    में   भटके 
रूप राशि को  स्वर्णिम करके 
प्रगति वाद  के  भरे  थे मटके 
कृषक   रहे  न   भूखा   नंगा 
जग की खुशियां उन पर दे दो।
   
            इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।।

काव्य जनक जो रश्मिरथी के
कलमकार  जो   रसवंती  के 
नायक  सूत   पुत्र  बन  बैठा 
विवश   पांच  पुत्र  कुंती  के 
कांच  के  टुकड़े  भरे  पड़े हैं 
उनमें   हीरा  चुनकर   दे दो। 
               
                 इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।।

स्वर्ग के पथ पर बढ़ें युधिष्ठिर 
हमसे भीम की  गदा न छीनो 
पार्थ कर्ण   में  क्या  अंतर है 
मेरी  नजर में  श्रेष्ठ  हैं  दोनों 
पौरुष के वह  प्रबल  पुजारी 
वही कर्ण  के  किंकर  दे दो। 
     
                   इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।।

उषा  दिशा आच्छादित  करती
पसरे   अंधियारे   को    हरती
संध्या काल निकट जब आता 
पूरे  दिन  को   जीकर  मरती
जहां-तहां  बिखरी   है  रचना
एक-एक को  बिन  कर दे दो 
   
                     इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।।

राष्ट्र   चेतना    का    हो    गुंजन 
देशभक्ति से  खिला हो  तन-मन 
जगत ने जिनको किया तिरस्कृत 
उनके   लिए  तड़पता   था   मन 
वीणा  के    तारों     में     झंकृत 
मधुर-मृदुल  सुर  तिनकर  दे दो।
    
                     इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।। 

कब तक रहें काव्य से वंचित 
पड़ी हुई   है   धरा असिंचित 
सुप्त   शांति  सोई  है ज्वाला 
जागेगी क्या कभी अकिंचित
तरुणाई    ले   ले    अंगड़ाई 
कुछ   ऐसे पथ गिनकर दे दो।
    
                     इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।। 

ज्यों उपवन  खिलता   बहार में
था   मुंगेर   जिला   बिहार   में 
रामधारी सिंह 'दिनकर' बनकर 
जन्में  उसी   पुण्य   कछार  में 
उर   अंतर  के  मानस  पुष्पित 
छंद विद्या   स्वर  सुनकर दे दो।

                इष्ट हमें फिर दिनकर दे दो।।
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(रवि प्रताप सिंह,कोलकाता,8013546942)
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