संस्कृत में शास्त्रार्थ परम्परा और गया
हिंन्दी के भारतेंदु युग के पूर्व से ही शास्त्रज्ञों में शास्त्र चिंतन और विमर्ष के प्रति जागरूकता केसाथ उत्साह रहा है। वैसै यह परंपरा अति प्राचीन है।।इसका उत्स गुरुकुलों से सम्बद्ध है जहाँ शिष्य कुलगुरू के समक्ष किसी निर्धारित विषय पर अपना-अपना मत प्रस्तुत करते थे जिससे उनकी मेधा ,तर्क शक्ति का विकास होता था।आधुनिक बहस,अथवा वाद-विवाद को भी शास्त्रार्थ की तरह कह सकते है किंतु शास्त्रार्थ थोड़ा अलग है । शास्त्रीय विषयों की पूर्वापर समीक्षा का एक रूप है शास्त्रार्थ ।आर्ष कुल की इस परम्परा का एक रूप भाषा और साहित्य प्रेमी राजाओं के राज दरवार में भी मिलता है जहाँ ऐसे शास्त्रीय विषय जिससे प्रजा का हित जुड़ा हो, उस पर दरवार में विद्वान शास्त्रियों के बीच मत प्रस्तुत किए जाने की प्रक्रिया होती।इस प्रक्रिया मे दो विद्वान ही अधिकृत होते।उन में जो राजा को अपने तर्क से प्रभावित करते उन्हे अन्य के साथ भी शास्त्रार्थ करना होता।जब सभी परास्त हो जाते तब विजयी कोश्रेष्ठ घोषित करते हुए प्रधान के रूप में मान्यता मिल जाती।दरवार में नवरत्नों की संकल्पना भी इसी का परिणाम रही होगी।
महाराजा विक्रमादित्य से भोजराज तक तो यह अतिशय सम्मान्य रही।बौद्धो के अनाचार औरअविवेकिता को परास्त करने तथा अद्वैतवाद की स्थापन ना के लिए जगद्गगुरू आदिशंकराचचार्य को अनेक लोगों से शास्त्रार्थ करना पड़ा था। मडन ममिश्र के साथ उनके शास्त्रार्थ विख्यात ही है ।अपभंश काल में इसकी थारा क्षीण हो गयी।जैसे -जैसे भाषा रूप बदलतीहै , लोक सरोकार भी बदलते हैं। लेकिन परम्परा समाप्त नहीं होती।बाणभट्ट के जीवन काल में ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिसमें शास्त्रार्थ की बात आई है। श्रीहर्ष स्वयं विद्वान के साथ कवि हृदय भी थे। उन्होंने बाणभट्ट के पाण्डित्य को परख कर ही अपने दरवार में स्थान दिया था । दोनों की अंतरंगता ऐसी बढी कि उन्हें हर्षचरितम् लिखने का अवसर मिल गया । संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान कवि भारवि की भी शास्त्रार्थ चर्चा खूब होतीहै।
बाणभट्ट और मयूर भट्ट में भी शास्त्रार्थ हो,,, संभाषहा है। उन दोनों के बिहार में होने से यहाँ की भूमि अत्यन्त गौरवान्वित है। उसी परम्परा को आगे बढ़ा ते हुए शाकद्वीपीय ब्राह्मण पारिवारिक उत्सवो में भी शास्त्रार्थ का आयोजन करने लगे। खास कर विवाह के अवसर पर तो अवश्य।
पाठशालाओं में संस्कृत संवाद के साथ विषय के गहन अध्ययन के प्रति रुचि बढ़ाने का साधन भी था शास्त्रार्थ। यदि विषय का अध्ययन नहीं है त पराजय निश्चित है।इसके क ई मानक तत्व ध्यातव्य हैं।जैसे,संभाषण में स्प्ष्ट प्रवाह,विषय की समझ और शब्द भण्डार, ंसंकोच का अभाव, प्रभावित करने की क्षमता, द्बतीय पक्ष के कथन को सप्रमाण खंडित करने की मेधा।।इनसे अच्छे विद्वान भी अवाक् हो जाते हैं।
एक बार आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री जब मात्र मध्यमा केविद्यार्थी थे तब अपनी बहन के व्याह में एक उम्म्रदराज पंडितजी को शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया था, जिससे क्रुद्ध हो कर इन के पिताने ही बहुत डाँटा , किंतु पराजित पंडित जी ने ही बचाव किया था। प्राचीन शास्त्रार्थियों
में पण्डित देवदत्त मिश्रजी का नाम बहुत आदर पूर्वक लिया जाता है।ज जिस वर पक्ष अथवा कन्या पक्ष की ओर से रहते दूसरे पक्ष में चिंता हो जाती।इतने बड़े विद्वान के साथ कौन भिडे़।ऐसी जनश्रुति है कि उनके हाथ में ताड़ का पंखा रहता था। शास्त्रार्थ के क्रम में प्रतिपक्ष के निकट पहुँच जाते और पंखा चलाने भी लडते।संभव है यह भी कारण रहा हो जिससे लोघ डरते होंं। गया पंड़ित और पांडित्य की भूमि रही हँ।पं प्रसिद्ध नारायण मिश्र, ं सिंहेश्वर मिश्र, पं वंशीथर मिश्र ,आचार्य पं चन्द्रशेखर मिश्र,,पं गणैश दत्त मिश्र, व्याखरणावतार पं जगन्नाथ पाठक,पं राम लखण पाठक,, पं राम लखन मिश्र, पं गोपाल मिश्र, पं रामावतार मिश्र, पं शंकर दत्त वैद्य,जैसै उदभट विद्वान शास्त्रार्थ महारथी अनेक हुए।।
यद्पपि यह परम्परा केवल मग ब्राह्मणों तक ही सीनित रही।
अब इसमे भी ऐसी गिरावठ हुई कि शास्त्रार्थ तो दूर संस्कृत ंंसंभाषण का भी टोटा हो गया जबकि अन्य स्थानो से संस्कृत के प्रति श्रद्धा के साथ प्रसारण संबर्धन कार्य प्रशंसनीय है।रामकृष्ण
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