बदलते हुए परिवेश में
~ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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इंसानियत का चोला ओढ़,
दिखते हैं संयासी जैसा,
ज्ञान प्रसार का आड़ लेकर,
ठगने का है अंदाज ऐसा।
पर रहते हरदम तैस में,
बदलते हुए परिवेश में।
छाती पर से धोती पहने,
बांध रुद्राक्ष का बाजूबंद।
कभी करते शेरो-शायरी,
कभी सुनते दोहे और छंद।।
रहते ये हरदम ऐश में,
बदलते हुए परिवेश में।
अंदर झांककर देखो इनको,
सत्य-संमार्ग से हैं भटके हुए।
जीवन यूँ ही व्यर्थ बिताते हैं,
खुद को अहम में झटकते हुए।
जीते स्वार्थ के बस में,
बदलते हुए परिवेश में।
झूठ फरेब लूट खसोट,
फैलाते विद्वेष संसार में।
स्वयंभू पथ-प्रदर्शक बनकर,
दुनिया को रखकर भ्रम में।
मर्यादा लांघजाते द्वेष में,
बदलते हुए परिवेश में।
गिरते आदर्श मूल्यों पर,
नैतिकता का देखो खेल,
आदर्शवाद की परिभाषा
क्या आजादी क्या जेल।
आग उगलता आवेश में,
बदलते हुए परिवेश में।
बड़ा जतन से पाए तन,
चार दिन की है जिंदगी।
संमार्गि बन कर देख जरा,
निकल पड़ेगी मन की गंदगी।
स्वार्थी भरे पड़े हैं देश में,
बदलते हुए परिवेश में।
बेसहारों का बनकर सहारा,
अंदाज बदल दो जीने का।
गरीब भाई को गले लगालो,
भला हो अपना देश का।
रहो आगे नेकी के रेस में,
बदलते हुए परिवेश में।
✍️ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश "
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