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कानून का डर न था

कानून का डर न था

जब तलक कानून का डर न था,
नेता सत्ता अधिकारी लूटता था।
काट कर वन वृक्ष सब बेच डाले,
नदियों के गर्भ को भी खोदता था।

था नहीं कर तब कोई पानी हवा पर,
फूल पत्ती परिंदों के पर नोंचता था।
उजाड़ डाला सारा गुलशन स्वार्थ में,
खुश्बूओं को बाजार में बेचता था।

थी खबर हमको कहां क्या हो रहा था,
कौन लूटे मुल्क को या धरा बेचता था?
सो रहे थे तान चादर निर्लिप्त होकर,
कोई बेटियों की अस्मतों को नोंचता था।

होने लगे प्रदुषित नगर गांव उपवन,
कटने लगे वन जो कभी थे सघन।
हो गई प्रदूषित हवा और नीर भी,
होने लगी चिन्ता शुरू चिंतन मनन।

बिन भय के कब प्रीत जग में हुई,
कर लगा तो चिन्तायें कर की हुई।
खुश्बू हवा पानी पीढ़ियों की धरोहर,
भविष्य की चिंता परेशानी कम हुई।

अ कीर्ति वर्द्धन
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