भ्रम की शिकार दिल्ली

भ्रम की शिकार दिल्ली

अधिकतर रचनाकारों की यह दिली इच्छा होती है कि वह दिल्ली की पत्र-पत्रिकाओं में छपे या दिल्ली के किसी प्रकाशन से उसकी पुस्तक छपे और दिल्ली में ही लोकार्पण हो । कवियों का, रचनाकारों का ऐसा विश्वास है कि दिल्ली में छपने से पूरे देश के साहित्य प्रेमी उन्हें जानने लगेंगे । दिल्ली में छपने वाली समीक्षा उसके भविष्य के लिए ज्यादा असरदार होती है ।
कुछ लोगों का कहना है कि अच्छी कविता सिर्फ दिल्ली में लिखी जाती है ।
दिल्ली सिर्फ राजनीतिक राजधानी ही नहीं है , बल्कि कुछ तथाकथित लोगों के द्वारा साहित्य की राजधानी भी बना दी गई है । एक समय था जब इलाहाबाद और बनारस साहित्य का हब हुआ करता था । आज हिंदी की मुख्यधारा में दखल रखने वाले अधिकतर लेखक दिल्ली और एनसीआर में रह रहे हैं और जो नहीं हैं वे किसी भी तरह दिल्ली पहुंचने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। पूरे देश में यह भ्रम कि दिल्ली ही साहित्य का केंद्र है जो यहां से नहीं जुड़ेगा उसे दुनिया नहीं जानेगी या फिर वह एक बेहतर रचनाकार नहीं बन सकता, कितना हास्यास्पद और विचित्र है । ऐसा लगता है कि भारतीय साहित्य पर दिल्ली का कब्जा है और दिल्ली से बाहर के रचनाकार सिर्फ नाम के रचनाकार हैं ।
आइए जानते हैं अब दिल्ली का सच--
दिल्ली के बाहर के कवि, रचनाकार जो दिल्ली की पत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं उसके लिए उन्हें वहां के बड़े लेखकों , साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों के साथ अपनी गणित बैठानी होती है। यह गणित का खेल सबकी समझ में नहीं आता है क्योंकि साहित्यकार सरल स्वभाव के होते हैं पर दिल्ली आने के बाद साहित्यिक, सांस्कृतिक संस्थाओं में अपनी रचनाओं की उपस्थिति दर्ज करने के लिए उन्हें जुगाड़ की आवश्यकता पड़ती है। यह जुगाड़ू व्यवस्था सबके लिए संभव नहीं है क्योंकि किसी का झंडावरदार बनना हर कोई स्वीकार नहीं करेगा । दिल्ली में बैठे कुछ प्रभावशाली लोगों को रचना की महत्ता, मौलिकता और प्रासंगिकता से कुछ खास मतलब नहीं होता । यहां मतलब व्यक्ति से होता है । जिस व्यक्ति के पास साधन नहीं है,सामर्थ नहीं है, उन लोगों के लिए उस व्यक्ति की रचना डस्टबीन के कचरे के समान है । साहित्य के संघर्ष में दिल्ली ऐसी जगह है, जहां रहने मात्र से आपको आधी ताकत मिल जाती है। यहां के लोगों को साहित्य के वास्तविक और गंभीर प्रश्नों से कोई लेना-देना नहीं है। उनके दिमाग में यह खेल चलता रहता है किसको उठाना है किसको गिराना है ।


एक मजे की बात यह है कि जो बाहर के रचनाकार साहित्य की दुनिया में उच्च पदों पर बैठे हैं और इन सारी बातों से अवगत है फिर भी वे अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए कोई रास्ता नहीं बनाते । उन्हें पद मिल गया तो वे सोचते हैं कि जिन व्यक्तियों से मुझे लाभ मिलने वाला है मैं सिर्फ उन्हीं लोगों के इर्द-गिर्द रहूंगा उन्हीं का काम करूंगा । उनके दिमाग में उस वक्त सिर्फ और सिर्फ गणित चलता है संवेदनशीलता की कोई जगह नहीं होती ।
कुछ लोग ऐसे भी हैं जो दिल्ली से जुड़े हुए हैं पर रहते हैं दिल्ली के बाहर । वे दिल्ली में अपना जुगाड़ बना चुके हैं । वे जानते हैं कि मुझे कैसे छपना है, कैसे पुरस्कार लेना है । वे इस फिराक में रहते हैं कि कैसे कोई बड़ा पद मिल जाए । वे अपने ही कनिष्ठ कवियों को तवज्जो नहीं देते और जो उनके समकक्ष कवि हैं उनको कुछ बताना नहीं चाहते उनकी सोच होती है कि कहीं अगला आदमी वहां ना पहुंच जाए, कोई पुरस्कार न लेले । कुछ लोग ऐसे हैं जो दिल्ली में नौकरी की तलाश में आए। किसी कॉलेज में, विश्वविद्यालय में, किसी बड़ी कंपनी में या बड़े अखबार में बड़े पदों पर चले गए हलां कि वह मध्यवर्गीय परिवार से हैं फिर भी पद प्राप्त करने के बाद उनकी महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ गई कि वे यह भी भूल गए कि हम कहां से चले थे और हम क्या कर रहे हैं । वे उसी रास्ते पर चले गए जिस रास्ते पर उनके आगे बैठा है व्यक्ति चल रहा है । यदि वह उस पद पर नहीं भी है फिर भी कोशिश रहती है कि दिल्ली मेरी मुट्ठी में रहे । पत्र- पत्रिकाएं जिसके कुछ संपादक दुकान खोल कर बैठे हैं वे दिल्ली के बाहर के रचनाकार , जिसके पास उनको लाभ पहुंचाने के साधन नहीं है उनको कोई तवज्जो नहीं देते और भाषा में भी कोई लोच नहीं रखते । मैं सब की बात नहीं कर रहा पर ज्यादातर राजनीति से प्रभावित हैं। उनकी कोशिश रहती है मेरा जिनसे फायदा हो वही मेरी पत्रिकाओं मे छपें।
यदि किसी कार्यक्रम में यह घोषणा की जाए कि पटना के कवि पधार रहे हैं तो कवि श्रोताओं के मन में कोई ज्यादा खुशी नहीं होगी। पर यदि यह कहा जाए कि दिल्ली से चलकर फलां कवि पधार रहे हैं तो उनके चेहरे पर चमक आ जाती है । मैं जो कह रहा हूं यह कोई नई बात नहीं है इन बातों को बहुत सारे कवि मित्र भली भांति जानते हैं।
मैं दिल्ली में कुछ ऐसे कवियों से भी मिला हूं जो बिहार या उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं और स्वाभिमानी हैं। उन्हें किसी दफ्तर, किसी अकादमी या किसी सांस्कृतिक भवन के चक्कर काटना बिल्कुल पसंद नहीं है । वह निरंतर सहज भाव से लिखते आ रहे हैं । मैंने उनकी लेखनी में भी किसी भी प्रकार का उतावलेपन या किसी व्यक्ति विशेष जो किसी उच्च पद पर बैठा हुआ है, उससे लाभ की आशा से उसके बारे में बढ़ा चढ़ा कर कुछ लिखना, उसकी झूठी तारीफ करना जैसी चीजें पढ़ने को नहीं मिलती है । दिल्ली में तीन प्रकार के मंच हैं -- वामपंथी और गैर वामपंथी और मिश्रित। हालांकि कुछ कवि इतने चालाक हैं कि जिस मंच से उन्हें फायदा महसूस होता है उस मंच पर जाकर बैठ जाते हैं । वह अपनी रचनाओं का प्रयोग सिर्फ और सिर्फ नाम कमाने के लिए करते हैं । इसका सबूत आपको फेसबुक पर मिल जाएगा । फेसबुक पर रचनाकार अलग-अलग टोलियों में हैं। यदि आपको यकीन ना हो तो आप किसी कवि का नाम छुपा कर उनकी एक बेहतरीन रचना पोस्ट करें आप पाएंगे कि उस पोस्ट पर कोई लाइक या कमेंट नहीं है । यदि उस व्यक्ति के नाम के साथ रचना पोस्ट होती है तो उस व्यक्ति का चेहरा देखकर उसकी रचनाओं पर कमेंट आते हैं । यदि वह वामपंथी है तो वामपंथी कवि ज्यादा ज्यादा कमेंट करेंगे यदि वह वामपंथी नहीं है तो गैर वामपंथी उस पर कमेंट करेंगे ।
मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि रचनाकार प्रकृति के साथ जीता है, मानवता के लिए लड़ता है और मनुष्यता बचाने की हर संभव कोशिश करता है यही साहित्य का धर्म है फिर इस धर्म से भटक कर कुछ लोग मंचों, विचारधाराओं से कैसे बंध जाते हैं । पुरस्कारों के लिए किसी के पिछलग्गु बन जाते हैं । पत्र-पत्रिकाओं में छपने के लिए संपादकों के झंडे ढोने लगते हैं ।
इधर दो-तीन वर्षों में मेरी मुलाकात विशेषकर बिहार के पटना, रांची और उत्तर प्रदेश के तमाम छोटे- बड़े शहरों के कवियों, कवयित्रियों से हुई तो मुझे लगा ऐसा लगने लगा की अच्छी कविता तो अब दिल्ली के बाहर ही लिखी जा रही है । इसके अलावा फेसबुक के माध्यम से जब अलग-अलग राज्यों के कवियों, कवयित्रियों से मैं परिचित हुआ, उन्हें लाइव सुना तो मुझे लगा अपने देश में हीरे भरे पड़े हैं बस पहचानने वाले जौहरी की कमी है ।
दिल्ली भ्रम की शिकार हो चुकी है और बाहर के कवियों को भ्रमित कर रही है। हम देश के किसी भी कोने में बैठ कर सहज भाव से अपनी रचनाओं को लिखते रहें तो साहित्य सहज ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगी । एक बेहतर रचनाकार होने के लिए दिल्ली की स्वीकृति की कोई जरूरत नहीं है । अगर देश के सारे कवि, कवि के विवेक से हर बात सोचें, पुरस्कारों और सम्मानों से ऊपर उठकर सिर्फ मानवता के लिए लिखते रहें तो मुझे लगता है कि कवियों की बीच की यह खाई समाप्त हो सकती है और साहित्य के इतिहास में एक नए युग की शुरुआत हो सकती है ।-- वेद प्रकाश तिवारी
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