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मुझी से‌ पूछते हो हाल यह कैसे बना‌ ली‌ है।

मुझी से‌ पूछते हो हाल यह कैसे बना‌ ली‌ है।

मुझी से‌ पूछते हो हाल यह कैसे बना‌ ली‌ है।
कि जब से होस हमने  इस तरह अपनी सम्हाली है।।

उड़े  चमगादड़ों के पंख पर गिरता गया परचम।
गली में हर तरफ अब घूमता‌ दिखता मवाली हैं।।

अभी तक बंद शालाएँ  भले गुमनाम‌ के डर  से।
शहर के ‌ चौक चौराहें ख़ुली  हरदम कलाली है।।

अजन्मे रह गये मासूम‌ से सपने  कहूँ किस से।
लिखी‌  दीवार पर  देखो कि कैसी ‌तंग हाली है।।

नहीं इनसानियत के ‌रंग दिखते‌ साफ सुथरे से।
कहीं है‌ शोक‌ का‌ क्रंदन कहीं मनती दिवाली‌है।।

शहर‌ की  भीड़ में जो खो‌गया था फेक कर पत्थर।
इधर  कुर्शी के ‌सीने पर वही बैठा‌ बवाली‌  है।।

डा रामकृष्ण
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