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पाश.

पाश.

(राजेन्द पाठक )
पाश प्रेम का हो या द्वेष का।
खुद का हो या औरों का।
आमंत्रित हो या आरोपित।
बलात हो या स्वैच्छिक ।
पाश तो पाश है।
आश में, नाश में, खास है।
पाश में बंधना, पाश से मुक्ति..
सकारण है.. या अनायास ?
बहस बढ़ती जाती है ..
बहस भी है, बस एक पाश,
आश और नाश के कारणों की करती तलाश।

कर्म और अकर्म,
सत्कर्म हो या दुष्कर्म,
पाप या पुण्य, 
सकाम या निष्काम 
यह सब पाश ही तो है।
पाश से मुक्ति की 
अभिलाषा भी है एक विशेष पाश।

पाश ही जीवन
माँ की गोद के लिए बिलखते शिशु,
अपनी अनेक बाहें फैलाए,
किसी अवलम्ब को पाने के लिए,
बेचैन लता,
रंभाती गाय,
सब फिक्र जीवन की तरस,
सब अपने मधुर पाश की आस में !

पारस्परिक सम्बंधों को
नाम मत दो पाश का
यह तो रिश्ते की डोर,
है पतंग से जुड़ा धागा,
ये पाश नहीं 
आकाश में तैरने का
है आधार !
बंधन के बाद ही मुक्ति 
बंधकर के आत्मीयता !

पाश के फेरे..घेरे हैं वक्त के ?
कौन है पाशमुक्त, है कौन पाशवान ?
पाश भी पाश से बंधी, पाश से बनी।
 पाश में पाश की कथा है,
 हर एक पाश के पास 
 उसकी अपनी व्यथा है।

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