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अंग्रेजी तारीख से महापुरुषों की जयंतिया मनना उनका सम्मान नहीं , अपमान है |

अंग्रेजी तारीख से महापुरुषों की जयंतिया मनाना उनका सम्मान नहीं , अपमान है |

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
मेवाड़ में यह परंपरा रही है की सभी महाराणाओं एवं महापुरुषों की जयंतिया विक्रम संवत के अनुसार ही मनाई जाती है |
इसी कड़ी में विक्रम संवत के अनुसार कल के दिन ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की तृतीया संवत 1597 विक्रमी को, स्वाधीनता के अनन्य उपासक, भारतवर्ष के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी, अद्भुत शौर्य एवं स्वाभिमान के दैदीप्यमान सितारे प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप सिंह जी का जन्म हुआ था।


प्रात:स्मरणीय महाराणा प्रताप की 481 वीं जयंती
की आत्मिक शुभ कामनाएं...।
प्रजा प्रेम, दृढ़ विश्वास, सहिष्णुता, मानवाधिकार, स्वदेश स्वातंत्र्य, लक्ष्य प्राप्ति हेतु सतत साधना, आत्म प्रशंसा का त्याग, स्थाई कार्यों का संपादन... जैसे मूल्य और ध्येय जब तक आदरणीय रहेंगे, तब तक महाराणा प्रताप आदर्श उदाहरण बने रहेंगे... हमें निरंतर प्रेरणाएं मिलती रहें और उजाले अमर रहें।


इस प्रेरणादायी महा व्यक्तित्व के शताधिक वे प्रसंग जिनको कहानी, बात और गाथा के रूप में सालों से सुना- सुनाया जाता रहा और ताज्जुब होता है कि उन सबमें भारतीय नीति शास्त्र के कालजयी सुभाषित हैं : महाराणा और मणिकांचन योग।


मुगलों की 'राज्याभिषेक-पद्धति' #महाराणा_प्रताप को न सुहाती थी। उन्होंने मेवाड़ के राजपण्डित चक्रपाणि मिश्र से इस विषय पर वेद-पुराणों के अनुरूप ग्रन्थ-निर्माण का आग्रह किया। चक्रपाणि ने राज्याभिषेकपद्धति:, मुहूर्तमाला व विश्ववल्लभ: ग्रन्थों की रचना की।


महाराणा प्रताप का समय कैसा था?


... रक्‍ततलाई जहां 1576 ई. के जून की 18वीं तारीख को अपने मुल्‍क की स्‍वाधीनता के लिए उन ताकतों और उनके चहेतों के दरम्‍यां रण रचा गया जिनमें से एक हिंदुस्‍तान को अपनी मुट्ठी में बांध लेने को आतुर थी और दूसरी ताकत उस हथेली की लकीरों को बदलने के लिए कफन बांधकर निकली थी। गजब के हौंसले और अजब सी दीवानगी थी। जिन पहाड़ों पर आज भी चढ़ पाना दुश्‍वार है और जिन घाटियों को देखकर होश फाख्‍ता हो जाते हैं, उनमें से योद्धाओं ने निकल-निकलकर नाग जैसा व्‍यूह रच दिया था। घमासान भटों और सुभटों के बीच ही नहीं था, हाथियों के बीच भी हुआ। घोड़ों ने हाथियों के सिर पर लोहे की नाल जड़े खुर चस्‍पा कर दिए थे...।


... आखिर महाराणा प्रताप का युग कैसा था ? उस काल का समाज और संस्‍कृति कैसी थी ? बाबर के आक्रमण के दौरान देश की सबसे बड़ी ताकत मेवाड़ क्‍या हमेशा के लिए शांत हो गया ? शेरशाह के बाद, बाबर के पौत्र अकबर ने मेवाड़ के मान-मर्दन के लिए युद्ध की सारी मर्यादाएं लांघ दी मगर क्‍या वजह थी कि मेवाड़ के जख्‍मी हाथों में बलंदी के झंडे बने रहे। अकबर के कोई आधा दर्जन हमले और अभियान तथा युद्ध के बावजूद महाराणा प्रताप के हौसलेे पस्‍त नहीं थे।


अबुल फज़ल और फैजी जैसे कलमनिगार दिन-रात बादशाहत को जमीं पर रूहानी पेशवा साबित करने में अपना कर्तव्‍य समझ बैठे थे और बादशाहत के मायने बयां करने के लिए हर छोटी-छोटी बात तक लिखकर इनाम और तवज्‍जो अख्तियार कर रहे थे, अपना पानी बेच रहे थे, वहीं मेवाड़ अपना पानी बचाने के लिए तैयारी में लगा था। आत्‍म प्रशंसा में लिखने के नाम पर प्रताप ने अपने पास कुछ नहीं माना अन्‍यथा उसके दरबार में भी काेई अबुल फज़ल और फैजी होता। याद नहीं कि प्रताप ने अपनी प्रशंसा में काेई ग्रंथ लिखवाया हो। प्रताप के जीवनकाल में प्रशंसा की कोई पुष्पिका तक नहीं मिलती, हां चक्रपाणि मिश्र ने जरूर एकाध श्‍लोक प्रताप की प्रशंसा में लिखा।


अधिकांश इतिहासकारों ने प्रताप को अकबर की मुखालफत करने वाले योद्धा के रूप में ही चित्रित किया है। मुगलों द्वारा देश को एकता के सूत्र में बांधने के इरादों की राह में रोड़ा बनने वाले व्‍यक्तित्‍व के रूप में वर्णित किया है। हद तो यह भी हुई कि यह काम ऐसे इतिहासकारों ने कुछ ज्‍यादा ही किया है, जिन्‍होंने मेवाड़ को देखा ही नहीं। क्षेत्रीय स्रोतों को महत्‍व ही नहीं दिया। फारसी स्रोतों के आधार पर उन्‍होंने प्रताप के व्‍यक्तित्‍व को आंकने से ही गुरेज किया...।


... "महाराणा प्रताप का युग" कृति की रचना करते समय मैंने अपना कठोरपन बरकरार रखने का प्रयास किया है। कहीं-कहीं निष्‍ठुरता भी दिखाई दे सकती है, मैंने भावुकता या आतुरता से परहेज ही किया है...। उनकी लिखवाई तीन कृतियां 1. विश्‍व वल्‍लभ, 2. राज्‍याभिषेक पद्धति और 3. मुहूर्तमाला का संपादन करके और चौथी कृति "व्‍यवहारादर्श" का संपादन करते हुए मैंने पाया कि प्रताप असामान्‍य व्‍यक्तित्‍व लिए थे।


उनके बाद, मेवाड़ में जलाशयों की शृंखला खड़ी हुई, युद्ध पीडि़तों को पुनर्वास देकर मानवाधिकार की नींव डाली गई, उनके बाद कभी जौहर जैसी त्रासदी पेश नहीं आई, फलदार वृक्षों के रोपण और पेड़ों के वैज्ञानिक अध्ययन की शुरुआत हुई... कई योगदान है प्रताप के। आज के शासन संचालन के मूल में एक बड़ी रूपरेखा प्रताप के चिंतन की मानी जानी चाहिए।
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* महाराणा प्रताप का युग - डाॅ. श्रीकृष्‍ण 'जुगनू', आर्यावर्त संस्‍कृति संस्‍थान,
डी, गली ३ दयालपुर, करावल नगर रोड, दिल्‍ली, 2010 की भूमिका।


मानव के लिए जीवनदायी, एकमेव, विकल्‍पहीन संसाधन है जल और उस जल के संरक्षण, स्राेतों की सुरक्षा व संवर्धन लिए संर्वांगतया सोचने का यह अवसर है। सोचने ही नहीं, कुछ संकल्‍प लेने का भी समय है। मौका है तो बात कहने, चर्चा करने का अवसर भी है।
इस मौके पर याद आते हैं महाराणा प्रताप (1572-97 ईस्‍वी)। यूं तो अपने दौर में दुनिया के सबसे ताकतवर बादशाह से प्राण रहने तक संघर्ष के लिए ही याद किए जाते हैं, मगर, यह बड़ा सच है कि महाराणा प्रताप ने ही शासकों के सामने जल नीति के विकास का ध्‍येय रखा था।


उन्‍होंने अपने अपने क्षेत्र में पानी को सर्वसंभव बचाने पर जोर दिया। यही नहीं, अपने-अपने क्षेत्र में भूमिगत जल की खोज, उस जल की पहचान करवाने वाले पेड़-पौधों के संरक्षण, कम से कम व्‍यय में अधिकाधिक जलस्रोतों के निर्माण, जल के उपयोग के लिए नहरों, कुल्‍याओं के जाल बिछाने तथा पहाड़ों और मैदानी इलाकों में पानी की खोज कैसे हो सकती है,,, इस संबंध में आज्ञा देकर विशेषज्ञों को नियुक्‍त किया। प्रताप के बालसखा और दरबारी पंडित चक्रपाणि मिश्र को इस राज्‍याज्ञा के अनुसार ग्रंथ तैयार करने का श्रेय है।


पंडित चक्रपाणि ने यूं तो 'प्रताप वल्‍लभ' नाम दिया, मगर महाराणा प्रताप का विचार था कि ये प्रिय व रुचिकर मन्‍तव्‍य अकेले मेवाड़ के लिए नहीं है, यह दुनियाभर के लिए है। अत: कृति प्रताप वल्‍लभ नहीं, बल्कि '' विश्‍व वल्‍लभ'' होनी चाहिए। पुस्‍तक 'विश्‍व वल्‍लभ' हो गई। विश्‍ववासियों के नाम भारत से लिखी पहली अपीलीय पुस्‍तक। प्रकृतिप्रदत्‍त पानी, पेड़-पौधे, प्राणी प्राण और पर्यावरण के संबंधों पर अनूठा वैज्ञानिक अवदान...।


है न प्रताप का योगदान महान। वे महारांणा थे, उनको महाराणा (महार्णव, शाब्दिक आशय है महासागर) नाम को भी तो सार्थक करना था। उनकी देखरेख में ही झीलों की नगरी उदयपुर बसी और फिर सौ, सवा सौ सालों में मेवाड़ में झीलों की शृंखला खड़ी हो गई। ये झीलें कलात्‍मक भी हैं और जलात्‍मक भी। शासकों ने, यहां तक कि पिता-पुत्र ने भी प्रतिस्‍पर्द्धा के रूप में झीलों का निर्माण करवाया। जयसमंद तो अब तक एशिया की दूसरी बड़ी मानव निर्मित झील है...।


भारतीय परंपराओं के आलाेक में एक सर्वोपयोगी विचार। 2003 में जब यह ग्रंथ, रचना के करीब चार सौ साल बाद पहली बार सामने रखा तो प्रताप को पानी संचय के प्रेरणापुंज के रूप में पहचाना गया और लोगों ने मुझे भी बधाइयां दीं, ये तो आज तक मिल रही हैं, कल ही तो प्रियात्‍म विश्‍वविजयसिंह सिसोदिया ने पूना से दी..।


हल्‍दीघाटी महायुद्ध के बाद, 1577 ईस्‍वी में इस ग्रंथ का प्रणयन हुआ और मेवाड़ ही नहीं, तत्‍कालीन राजाओं के सामने एक आदर्श स्‍थापित हुआ कि हम अपने-अपने क्षेत्र के वर्षाकालीन जल काे बचाएं तथा उसकी बूंद बूंद का उपयोग करें। ये जलस्रोत दूषित न हो। यदि पानी बचा तो अकाल नहीं पड़ेगा, जल देखकर किसी राष्‍ट्र की समृद्धि का अनुमान होगा। है न पानीदार प्रताप का पानीदार प्रतापी कार्य...।


महाराणा प्रताप के काल का नवज्ञात शिलालेख
श्रीकृष्ण जुगनू
स्‍वातंत्र्यचेता महाराणा प्रताप (1572-1597 ईस्‍वी) के काल का एक शिलालेख हाल ही प्रकाश में आया है। यह नवीन तथ्‍यों की जानकारी देने वाला है। उदयपुर जिले के खरसाण गांव के एक वैष्‍णव मंदिर में छबने पर लगे इस शिलालेख से विदित होता है कि ग्रामीणों ने इस मंदिर का निर्माण महाराणा प्रताप के शासनकाल में करवाया था। इस गांव के निवासियों को महता पदवी प्राप्‍त थी और वे भगवान् विष्‍णु के प्रति विशेष आस्‍था रखते थे। खरसाण के पास ही तलवारों के गेरनृत्‍य के लिए मशहूर मेणार गांव में भी इस काल में वैष्‍णव मंदिर बना था, उसका शिलालेख मैंने अपनी पुस्‍तक 'महाराणा प्रताप का युग' में पहली बार दिया था। संयोग ही है कि इस काल में वैष्‍णव मत के प्रति विशेष चेतना देखने में आती है। प्रताप का दरबारी पंडित चक्रपाणि मिश्र स्‍वयं माथुरेय वैष्‍णव था और उसने अपने ग्रंथों में मंगलाचरण से लेकर बाद में भी विष्‍णु की वंदना की है।


य‍ह शिलालेख संवत् 1632 तद्नुसार 1575 ईस्‍वी का है। हालांकि आदरणीय श्री नारायणलालजी शर्मा इसे 1576 ईस्‍वी का स्‍वीकारते हैं। मित्रवर श्री अत्रि विक्रर्मा‍क का आभार कि उन्‍होंने लंबी काल गणनाएं करने के बाद सिद्ध किया कि यह शिलालेख 9 सितम्बर 1575 ईस्‍वी का है। उस दिन शुक्रवार था, आश्विन मास के शुक्लपक्ष की पंचमी को सूर्य नक्षत्र चित्रा, चन्द्र नक्षत्र अनुराधा तथा सर्वार्थ सिद्धियोग तथा रवियोग था। तारीख को छोड़कर ये सभी ति‍थ्‍यादि इस शिलालेख में बहुत ही सूक्ष्‍मता के साथ अंकित भी है। मध्‍यकालीन शिलालेखों में इतनी सूक्ष्‍म गणित कम ही देखने को मिलती है। यों प्रताप के निर्देश पर 'मुहूर्तमाला' का प्रणयन चक्रपाणि ने किया ही था।


इस मंदिर के सूत्रधारों के नाम भीमा, चम्‍पा एवं माणिक थे, ये किस शिल्‍पकार-कुल से थे, यह अनुसंधान का विषय है किंतु यह तय है कि ये राज्‍याश्रित नहीं, लोकाश्रित सूत्रधार थे। राज्‍याश्रित सूत्रधारों की वंशावली मेरे संग्रह में है। शिलालेख के आरंभ में भगवान् विष्‍णु के पुराण सम्‍मत अनेक नामों का स्‍मरण किया गया है। इस शिलालेख को विट्ठलदास महता, महता कला ने लिखा। लंबाकार लिखे गए इस शिलालेख में अंतिम अक्षर खंडित लगते हैं।
इसको बिना छाप लिए, मैंने उपलब्‍ध छायाचित्र के आधार पर ही पढने का प्रयास किया है। प्रथम पठन में इसका मूलपाठ मामूली संशोधन सहित इस प्रकार ज्ञात होता है--


(प्रथम पंक्ति) - सि‍द्धि। श्रीकृष्‍णाय नम:। गोविंद केशव जनार्दन वासुदेव। विश्‍वेश विश्‍व मधुसूदन विश्‍वरूप। श्री पद्मनाभ पुरुषोत्‍तम पुष्कराक्ष नारायणाच्‍युत नृसिंह नमो नमस्‍ते।।1।। महंनाथ ल...।


(द्वितीय पंक्ति) - गायन्ति ते विशदं कर्म्‍मगृहेषु देव्‍यो राज्ञश्‍च शत्रुवधमात्‍म विमोक्षणं च। गोप्‍यश्‍च कुंजरपतेर्जन्‍वकात्‍मजा या पित्रोश्‍चलब्‍ध शरणां मुनयो वयं च।। 2।। महं...


(तृतीय पंक्ति) - संवत् 1632 वर्षे शाके 1498 प्रावर्तमांने दक्षिणायनेर्गत श्रीसूर्ये शरद रितौ महामांगल्‍यप्रदे अश्विन मासे शुक्‍ल पक्षे पंचम्‍यां ति‍थौ घटी 21 उपरांत 6 व....


(चतुर्थ पंक्ति) - भृगुवासरे अनुराधा नक्षत्रे घटी 58 सिद्धयोगे त्रिधा सिद्धयोगे वर्गे रवियोगगत दिने लिखितम्।। महाराजाधिराज महाराणा श्रीप्रतापसिंह विजयराज्‍ये। लक्ष्‍मीना (रायण मंदिर प्रतिष्‍ठापितं)


(पंचम पंक्ति) - महता जागनाथ, कचरा, रामा, लक्ष्‍मीदास, सरबनाथ, विसनाथ, देवदत्‍त, हरदास, डुंगा, हेमा, समस्‍त। सूत्रधार भीमा चांपा, मा‍ंणिक लिखतम्। शुभं भवतुं।


छबने के बीच की प‍ंक्ति में इस अभिलेख को लिखने वालाें के नाम इस प्रकार लिखे हैं -


'महता वीठलदस लिखतं महता कला।-


नीचे ही बायीं ओर भी पंक्तियां हैं जो अशुद्ध हैं-


अब्राधार (?) सत्‍यभामा मनोन्‍य सार्थ स्रष्‍टा विश्‍वरूपपंत त्रीण्‍येगंगां विप्रदाभाति। नित्‍य सश्रीशम्‍भुर्वांछितं वप्रदधात्।
शमी (?) गर्भसाथागर्भस्‍य गर्भरूपण्‍यरिपु रिपु गर्भस्‍ययोगर्भ सते गर्भ प्रसीदतु। भट रोडा लिखितुं।
मित्रों को दूसरे और अंतिम श्‍लोक किसी न किसी ग्रंथ में उलपब्‍ध होना चाहिए। क्‍या ये भागवत में आये है (?), अन्‍य कोई स्राेत भी हो सकता है। मगर, यह शिलालेख है रोचक। महाराणा प्रताप के विषय में रुचिशील मित्रों को जरूर रुचिकर लगेगा क्‍योंकि मुगल आक्रमण की आसन्‍न आशंकाओं के दौर में भी यहां के निवासी देवस्‍थापत्‍य के कार्य में लगे हुए थे जबकि उधर के अधिकांश गांव खाली करवाए जा चुके थे।✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू जी की पोस्टों से संग्रहित
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