शिर फुटौवल को चलें हम
फिर सियासी गांव में
बहुत चौड़ी चट बिछी है
बबूलों की छांव में।।
भीड़ को क्या कहीं भी हम
जुटा लेंगे ही मगर
कुछ सही चमचे अगर
मिल जाएं तो इस गांव में।।
डुगडुगी डमरू हमारो
बांसुरी भी कम नहीं
बंदरों से नाच लेगी
बिना घुंघरू पांव में।।
बहुत भोली, भली जनता
लोकतंत्री लहर की
बहुत जल्दी भूल जाती
बैठते ही नाव में।।
डा रामकृष्ण
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