सच को सच कहने से डरता हूं
सच को सच कहने से डरता हूं, रिश्ता कोई टूट न जाए,
सच का किस्सा सच सुनकर, अपना कोई रूठ न जाए।
अक्सर देखा हमने सबको, रिश्ते टिके स्वार्थ की नींव,
भरे हुए हैं झूठ के गागर, सच सुनकर कोई फूट न जाए।
कभी कभी तो सच झूठ में, हम खुद ही फंस जाते हैं,
सम्बन्धों के द्वार ठिठक, झूठ को ही सच कह जाते हैं।
मन को भ्रमित होते देखा, जब लगे दांव पर अपनें हों,
अपनों के अपनेपन में तब, सच को हम बिसरा जाते हैं।
अ कीर्ति वर्द्धन
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