ब्राह्मण और गौ : एक चिंतन
प्रायः शौर्ववान व्यक्ति की उपमा सिंह (शेर ) से दी जाती रही है ।
ब्राह्मणों को भी इस विभूषण से विभूषित कर दिया जाता है , पर क्या यह उपयुक्त है ? नहीं । माना कि चंद्रशेखर आजाद जैसे वीर जन हुए हैं । प्राचीन काल में भी गुरु द्रोण और उनके पुत्र अश्वथामा जैसे वीर शौर्य के उदाहरण हैं । किंतु यह सम्पूर्ण ब्राह्मण वर्ण के लिए आदर्श नहीं हो जाता। वे वीरता दिखा गये तो यह गौरवपूर्ण है, पर हठात अनुकरणीय कदापि नहीं । विशेष परिस्थिति में राष्ट्र रक्षार्थ , आत्म रक्षार्थ शौर्य प्रदर्शन आपद्धर्म के रूप में सर्वस्वीकृत मत है , न कि आदर्श रूप में ।
ब्राह्मण आध्यात्मिक शील, साधना के प्रतीक हैं । दयाधर्म के उदाहरण हैं । अतः प्रायः गौ से इनकी उपमा दी जाती है । फिर शेर और गाय में सांमजस्य कैसा !
प्राचीन ग्रंथों में प्रायः लिखा मिलता है -- गौ ब्राह्मण हिताय च। "उद्योगिनः पुरुषसिंहमुपयति लक्ष्मी " में भी यह भावअंतर्निहित है कि उद्योग करने में शेर सी शान दिखाओ । सभी शक्ति संयोग से उद्योग करें, पर सभी शेर बनने से रहे । प्राचीन वर्ण-व्यवस्था में क्षत्रिय को सिंहोपम मानकर उनका स्वधर्म रक्षा ही मान्य हुआ । ब्राह्मण का स्वधर्म संस्कार शिक्षा उनकी नैसर्गिकता को ध्यान में रखकर ही स्वीकृत हुआ । सरलता , सीधापन , तप , त्याग इनके आदर्श हैं ।
निष्कर्षतः , ब्राह्मण गौ से उपमेय हैं न कि शेर से ।-- आचार्य राधामोहन मिश्र माधव
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