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यज्ञाद्भवति पर्जन्यो।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो।

सृष्टि में प्राणियों का प्रजनन किस कारण संभव हो पाता है इस संबंध में श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीहरि ने स्वयम् श्रीमुख से वर्णन करते हुये कहा है कि "अन्नाद्भवन्ति भूतानि"।अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति का कारण तत्व अन्न है।अब प्रश्न यह उठता है कि यदि जीव मात्र की उत्पत्ति अन्न से होती है तो फिर अन्न को पैदा कौन करता है?क्या जीवों के द्वारा अन्न उपजाये जाते हैं?नारायण कहते हैं नहीं।"पर्जन्यादन्नसम्भवः"।कहने का तात्पर्य यह कि अन्न की उत्पत्ति का कारण तत्व वर्षा है।चलो मान लिया अन्न से जीव और वर्षा से अन्न तो फिर इस वर्षा का कारक कौन सा तत्व है?प्रभु श्री कृष्ण बताते हैं"यज्ञाद्भवति पर्जन्यो"।अर्थात् वर्षा का कारण तत्व यज्ञ में सन्निहित है।ठीक है यह भी माना कि यज्ञ धूम से आकाश में मेघ का निर्माण होता है ,मेघ के कारण जल वृष्टि का होना संभव है।वृष्टि अन्नोत्पत्ति का कारण बनती है और अन्न भक्षण के उपरांत जीव में ऊर्जा का स्रोत उत्पन्न होता है और फिर जीव से जीव में संसर्गजा वह ऊर्जा समाहित होकर नये जीव की उत्पत्ति का कारण बनता है।तो फिर इस पूरी प्रक्रिया में यज्ञोत्पत्ति किन कारणों से संभव हो पाती है?नारायण ने कहा "यज्ञःकर्मसमुद्भवः"।यज्ञ का कारक हमारा कर्म होता है।प्रश्न पुनः सामने आता है चलो यह भी मान लेते हैं कि यज्ञ हमारे कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं तो फिर ये कर्म कहाँ से अवतरित होता है ?इसका कारण तत्व कहाँ छिपा है?नारायण कुछ पल को विराम लेते हुये आगे बतलाते हैं
"कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि"।अर्थात् कर्मों की उत्पत्ति का कारक "वेद"है।वेद से तात्पर्य यहाँ ज्ञान से है।जीव जब वेदाध्ययन में संलग्न होता है तब उसे ज्ञान की प्राप्ति होती है और फिर वह सद्कर्मों की ओर प्रवृत्त होता है।कर्मफल स्वस्वरूप वह नवसृष्टि का निर्माण कर पाता है।तो फिर इस "वेद"के सृजन का कारण कहाँ है?योगीराज कहते हैं"ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्"।कहने का तात्पर्य यह है कि वेदोत्पत्ति का कारण तत्व अक्षर में सन्निहित है और यह अक्षर ही ब्रह्म है।"कठोपनिषद भी कहता है शब्दो वै ब्रह्म"।तो कुल मिलाकर बात यही बनती है कि"तस्मातसर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्"।अर्थात् यह सर्वव्यापी परमात्मा हमारे नित्यनैमित्यिक कर्तव्य कर्म रूपी यज्ञ में ही निहित है।अतः हमें सतत् क्रियाशील रहकर वेदों उपनिषदों के बताये मार्ग का अनुसरण करते हुये नित्यनैमित्यिक कर्मों का संपादन करते रहना चाहिये।जो भी जीव इससे च्युत होकर अनुगमन करता है उसे इस कारणभूत संसार में जीने का कोई अधिकार नहीं है।शास्त्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन ही जल,अन्न,और वायु के प्रदूषित होने का कारण बनते हैं।इससे संसार को लाभ के बजाय हानी ही होती है।वर्त्तमान में जो अकाल,अनावृष्टि, अतिवृष्टि, महामारी ,अज्ञात रोगजन्य व्याधियाँ नित्य उत्पन्न हो रही हैं उसका एकमात्र कारण जीव का वेदविहित कर्मों से च्युत होना ही है।स्व अर्थ कर्म का किया जाना अनधिकृत चेष्टा मानी जाती है।इसका कारण यह है कि हमें जो कुछ भी प्राप्त होता है इस संसार के द्वारा ही प्रदत्त है।हम कुछ लेकर न आते हैं और न ही साथ लेकर कुछ जाते हैं ।जो कुछ भी पाया(संतति से संपत्ति तक)सब इस संसार के द्वारा ही प्रदत्त है।इसलिये हम समस्त प्राणी मात्र इस संसार के ऋणि हैं।अतः इस ऋण से मुक्ति हेतु संसार हित में हमारे द्वारा किया गया सद्कर्म ही कारण हो सकता है।न कि असद्कर्म।यदि ऐसा कर पाने में हम सक्षम हो पाते हैं तो फिर हमारी संज्ञा मात्र पुरुष की नहीं वरन् महापुरुष की होगी।यह सब संभव करने के लिये अपने आराध्य के प्रति पूर्ण आस्था एवं सद्ग्रंथों का अवगाहन मनन एवं चिंतन परमावश्यक है।
हरि ऊँ तत्सत्।......मनोज कुमार मिश्र "पद्मनाभ"।
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