हवाओं में फैला ये कैसा ज़हर है?
मनजीत कौर "मीत"
हवाओं में फैला ये कैसा ज़हर है
कठिन दौर यारो ये मुश्किल पहर है
डरा सहमा सा देखो इंसां खडा़ है
विचारों की उलझन में जैसे जडा़ है
अनोखी ये विपदा न देखी न भाली
कि हरने को जीवन चली इक लहर है
कठिन दौर यारो...
कि पल पल तड़पते अपने वो देखे
समय को फिसलते हाथों से देखे
लगीं हैं कतारें न बिस्तर दवाई
न सांसें मयस्सर ये कैसा शहर है
वही दूर बैठे, थीं जिनसे बहारें
बने हैं नदी के सभी दो किनारे
अकेला है बैठा चिंता सी पाले
कि जीवन ग़ज़ल की बिगडी़ बहर है
कठिन दौर यारो...
कतारें लगीं मरघट के बाहर
नहीं पास आता, रोग ऐसा है जाहर
बिखरी है आशा और विश्वास टूटे
पटी लाशों से देखो गंगा नहर है
कठिन दौर यारो.....|
मनजीत कौर "मीत", गुरुग्राम
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