जो खड़े हैं हाशिये पर
मिथ्या बोलूं कैसे ?
खड़ा हूँ मानवता के पक्ष में
नहीं हूँ शामिल किसी प्रतिस्पर्धा में
फिर अपनी जिम्मेदारियों को
भूलूं कैसे ?
मुझे नहीं चाहिए बड़ा पद
सिर्फ मनुष्य बनना ही उद्देश्य है मेरा
फिर दृढ़ इच्छाशक्ति , आत्मविश्वास
और कठिन संघर्ष का मार्ग
छोडूँ कैसे ?
मुझे नहीं चाहिए धन की पोटली
क्योंकि मेरे साथ रहती हैं
मेरे पुरखों की किताबें
उनको पढ़ने के बाद
फिर जीवन मूल्यों का साथ
छोडूँ कैसे ?
जो खड़े हैं हाशिये पर
उनके साथ जीना,
है साहित्य धर्म मेरा
मेरी रचना छंदों में बंधती है
उनकी पीड़ा को छू कर
फिर उन रचनाओं में
सियासत का रंग भरूं कैसे ?
मेरी रचनाएं बाजार की चारदीवारियों को
कर के पार
पहुंचती है उन सबके पास
जिनको है यह पूर्ण विश्वास
मनुष्यता बचाने की हर कोशिश
एक दिन होगी साकार ।
--- वेद प्रकाश तिवारी
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