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न जाने लोग कितने?

न जाने लोग कितने?

अ कीर्ति वर्द्धन
न जाने लोग कितने, काल कवलित हो रहे हैं,
नयन भी तो थक गये, संवेदना शून्य हो रहे हैं।
जाने किस गुनाह की, किसको सजा क्यों मिली,
मास्क लगाया दूरी रखी, लोग फिर भी मर रहे हैं।
कुछ यहां पर भ्रष्टाचारी, आक्सीजन भी बेचते,
कुछ निकम्मे अधिकारी नेता, लूट में ही लग रहे हैं।
कोई करें घोटाला दवा का, कोई बिस्तर के खेल में,
बदहाल नागरिक सभी, बस अपनों को खो रहे हैं।
है किसी की योजना, यह सरकार बदलनी चाहिए,
कुर्सी के लिए भेड़िए, लोमड़ी को सिर पर ढो रहे हैं।
दुर्भाग्य है देश का यह, गटर के कीड़े घर में पलें,
निज स्वार्थ में जो पाक, चीन के हाथों में खेल रहे हैं।
कोई लूटता एंबुलेंस में, कोई अस्पतालों में दलाली,
कुछ सरकारी तंत्र की महिमा, अपनों को ही रो रहे हैं।
कह रहे सरकार है, और बुलन्द उसका इकबाल भी,
फिर कौन हैं उसके नुमाइंदे, गलत सूचना दे रहे हैं?
सोई हुई जनता यहां पर, आरोपों का खेल खेलती,
गलत को सब प्रश्रय देते, आंख बन्द कर देख रहे हैं।

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