महाकवि कमलेश मिश्र

महाकवि कमलेश मिश्र -- ( 1844-1935 )

लेखक -- विधुशेखर मिश्र
हिन्दी-संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् महाकवि कमलेश मिश्र का जन्म बिहार प्रान्त के अरवल मण्डलान्तर्गत बेलखरा नामक ग्राम में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1901 को एक प्रतिष्ठित शाकद्वीपीय ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनका मुख्य नाम " बालगोविन्द मिश्र " तथा उपनाम " कमलेश " था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने पूज्य पिता श्री रामबक्स मिश्र के सान्निध्य में घर पर एवम् उच्च शिक्षा काशी में पूर्ण हुई। इनके साहित्यिक गुरु श्री नृसिंहदत्त शास्त्री थे। काशी अध्ययनकाल में भारतेन्दु जी के सहाध्यायी रहे तथा दोनों में प्रगाढ़ मित्रता हो गयी। बनारस से पढ़कर लौटने के पश्चात् टेकारी, दरभंगा,जोधपुर आदि राज-रजवाड़ों में रहकर अपने उत्तम काव्य-कौशल का परिचय दिये तथा कालान्तर में अपने जन्मस्थान ( बेलखरा ) को छोड़कर "बासाटाँड़" नामक गाँव में बस गये।आज भी इनके वंशज इसी गाँव में रहते हैं।
कमलेश मिश्र रीतिकालीन कवि थे। आचार्य शिव पूजन सहाय द्वारा लिखित " भारतेन्दु जी के सहपाठी कमलेश जी " नामक आलेख 1944 में मासिक पत्र ' किशोर ' के जनवरी-अंक में प्रकाशित हुआ था। उक्त आलेख में कमलेश जी का विस्तृत जीवन परिचय दिया गया है। डॉक्टर नगेन्द्र द्वारा सम्पादित " हिन्दी-साहित्य का इतिहास " नामक पुस्तक में इन्हें भारतेन्दु-युग के अन्तिम उल्लेखनीय रीतिकवि बतलाया गया है। इस पुस्तक के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इन्होंने " भाषा-छन्द-प्रकाश " नामक एक लक्षणग्रंथ की रचना भी की थी जिसका प्रकाशन 1899 ईस्वी में हुआ था। इसमें इन्होंने सैंतालिस मात्रिक-वर्णिक छंदों के पद्यबद्ध लक्षण और प्राय: स्वरचित उदाहरण भी दिये हैं।
इनकी संस्कृत-हिन्दी रचनाएँ बिहारबन्धु, पाटलिपुत्र, साहित्य-सरोवर, प्रियंवदा आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थीं। उनदिनों ये ' गोविन्द ' एवं 'बालगोविन्द ' नामों से लिखा करते थे। इन्होंने ' साहित्य-सरोवर ' और ' प्रियंवदा ' का सम्पादन भी किया था। ज्ञात होता है कि कभी किसी धृष्ट कवि ने इनकी कुछ रचनाएँ चुरा ली थी तब से ये अपने प्रत्येक पद्यों में उपनाम " कमलेश " जोड़ना प्रारम्भ किये थे जो जीवन पर्यन्त चलते रहा।
महाकवि कमलेश मिश्र द्वारा रचित लोकप्रिय गीतिकाव्य " कमलेश विलास: " 1955 ईस्वी में प्रकाशित हुआ था। इसका सम्पादन इन्हीं के विद्वान् पौत्र आचार्यत्रय श्री श्रीमोहन शरण मिश्र ने किया था। यह संस्कृत-साहित्य का प्रथम गीतिकाव्य है जिसमें प्रचलित लोकधुन पर आधारित शास्त्रीय रागों में गाये जाने वाले गीतों के साथ फारसी परम्परा में प्रचलित गज़लों का सफल प्रयोग किया गया है। कविवर जयदेव के 'गीत गोविन्द ' की परम्परा में रचित " कमलेश विलास: " आधुनिक संस्कृत-साहित्य की अमूल्य निधि है। पद्मभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय के प्रधान -संपादकत्व में प्रकाशित " आधुनिक संस्कृत-साहित्य का इतिहास " नामक पुस्तक में ' कमलेश विलास: ' की विस्तृत चर्चा की गयी है। उक्त पुस्तक में यह स्पष्ट किया गया है कि संस्कृत-लोकगीत के प्रवर्तक भारतेन्दुकालिक कवि कमलेश मिश्र थे जिन्होंने " कमलेश विलास: " का प्रणयन किया, ये भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के पूर्ववर्ती गीतकार थे। यह भगवद्भक्ति की उदात्त भावभूमि पर 13 सर्गों में निबद्ध है। इस गीतिकाव्य में सोहर, हरिगीतिका गज़ल, दोहा, ठुमरी, होली, चैता, दिक्पाल छन्द, रेखता, कौव्वाली, विहाग, टोड़ी,लावनी, झूमर, नहछू आदि का सुललित प्रयोग किया गया है।
उनकी संस्कृत- हिन्दी की कुछ रचनाएँ द्रष्टव्य हैं -----
गज़ल
मुकुन्दो माधवी कुंजे, बहिर्मुंजाटवी- मुंजे ।
लसत्पुष्पावली पुंजे, महामधुपावली गुंजे ।। 1।।
सशोकेत्वत्कृते पंके, रुहीदृग राधिकेsशंके ।
शयानो भूमि-पर्यंके, द्रुतंचल गृह्यता मंके ।। 2।।
निमग्नो हास सन्तापे, प्रभूते कोकिलाssलापे ।
मनोजो मोदते पापे,शरं संधाय वै चापे ।। 3।।
विधायै वाssलि! शृगारं,समानं सन्त्यजाssगारम् ।
व्रजस्निग्धे! व्रजाधारं, हरिं सम्मोदयस्वाsरम् ।। 4 ।।
यदा कमलेश- संगीता, सुधा वाणी त्वया पीता।
तदा याताsसि वा भीता, स्वयं वंशी गिरा नीता।। 5 ।।
कवित्त
भौंर कृत गुंज फल-फूल तरु पुंज शुचि,
सौरभित कुंज मृदु मुंज चहुँ और हैं।
चातक- चकोर- शुक- सारिकन- सोर
घुमि घेरि घनघोर लखि नृत्यकर मोर हैं।
छैल छल छन्द " कमलेश " तिय फंद पबि,
श्याम सुखकंद नन्दनंद चित - चोर हैं।
पौन अनुकूल जहँ कालिन्दिय कूल तहँ,
डोर मखतूल महँ झूलत हिंडोर हैं।।1।।
पावस प्रचारे पौन प्यारे सोर कारे मेह,
नाचैं मोरवारे " कमलेश " मनुहारे हैं।
कालिन्दी- कछारे पै कदम्ब तरु डारे डोर
झूला झूलदारे झुकी कुंदन किनारे हैं।
सोरहूँ सिंगारे साजि आनि व्रजनारे तहाँ
झमकि झुलावतीं औ गावतीं मलारे हैं।
भूलैं छविवारे छैल छाम छूमवारे दुहूँ,
राधिका सो नारे अरु नन्द के दुलारे हैं।। 2।।
महाकवि कमलेश मिश्र एक महान् शब्द साधक थे। इन्होंने अपनी रचनाओं में अति सहजता से विभिन्न अलंकारों का सुन्दर संगुम्फन किया है जिसे पढ़कर पाठक आश्चर्यचकित हो जाते हैं।
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