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बढ़ाते रहे हैं

बढ़ाते रहे हैं (हिन्दी ग़ज़ल)

समय को हमेशा बढ़ाते रहे हैं।
गलत पाठ सबको पढ़ाते रहे हैं।१।
इधर गैर की न पड़ जाए निगाहें,
हर हमेशा वे बांहे चढ़ाते रहें हैं।२।
कहीं कोई चुप होकर यूं न बैठे,
इसीलिए कुछ बातें कढाते रहे हैं।३।
मेरी फिक्र उनको सताती जगाती,
हरेक बात हम सर मढाते रहे हैं।४।
बहुत दौर नाकामयाबी हम देखें,
रख हौसला गढ़ को ढहाते रहे हैं।५।
जो बोझ बनकर हमें सालता हो,
वैसे को हम बस दहाते रहे हैं।६।
मिटे न कभी कोई अरमान मेरा,
कहां हम आंसू बहाते रहे हैं।७।
जो चाहा मयस्सर हुआ 'मिश्रअणु' को,
अरमान दिल के लहलहाते रहे हैं।८।
      ---:भारतका एक ब्राह्मण.
       संजय कुमार मिश्र 'अणु'
       वलिदाद अरवल (बिहार)
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