किसने बनाया किसान को गरीब

किसने बनाया किसान को गरीब




लेखिका:- कुसुमलता केडिया 
भारत की हजारों वर्षों की जिस संपन्नता की बात की जाती है, वह मुख्यतया किसानों, शिल्पियों और व्यापारियों पर टिकी थी। राजकोष में आने वाले धन का सबसे बड़ा हिस्सा किसानों से प्राप्त होता था। मनुस्मृति, विष्णु धर्मसूत्र, गौतम धर्मसूत्र आदि में स्पष्ट व्यवस्था है कि सामान्यतया राज्य, कृषि उत्पादन का बारहवां अंश लेगा। अगर कोई विशेष संकट उपस्थित हो तो आठवां या छठा अंश भी मांगा जा सकता है। कभी-कभार ही ऐसा होता था कि राजा इससे अधिक अंश कर के रूप में प्राप्त करे। इसके लिए उसे किसानों से स्नेहपूर्ण अनुरोध (प्रणय व्यवहार) करना होता था।
खरीद और बिक्री पर जो कर लगता था, वह राजकोष में संचित होने वाले धन का थोड़ा ही अंश होता था। तेरहवीं शताब्दी तक के जो आंकड़ों से स्पष्ट है कि आयात और निर्यात पर संबंधित वस्तुओं के मूल्य का तीसवां या चालीसवां हिस्सा ही कर के रूप में लिया जाता था। बारहवीं शताब्दी के अभिलेखों से पता चलता है कि चोल शासक किस प्रकार बंदरगाह पर आने वाले यहूदी व्यापारियों के नाम और लाई गई वस्तु की मात्रा और मूल्य लिखते थे। उसके बाद उस संपत्ति की रक्षा का दायित्व शासन का हो जाता था। इस परंपरा का लाभ खुद पुर्तगालियों, अंग्रेजों और डचों ने सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी तक उठाया। उनके अपने देशों में ये व्यवस्थाएं अकल्पनीय थीं। इन्हीं सुविधाओं से उन्होंने भारतीय राजाओं की उदारता को जाना और उसके दुरुपयोग का लालच उनमें उभरा।
पर ध्यान देने की बात है कि सोलहवीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य में तीन सौ पत्तन (बंदरगाह) थे और एक हजार हाथी, बीस हजार घोड़े और ग्यारह लाख सैनिक इन पत्तनों पर व्यापारियों की सुरक्षा के लिए तैयार रहते थे। महाभारत में वर्णित आंकड़ों को भारतद्वेषी लोग काल्पनिक कह देते हैं, पर विजयनगर के ये आंकड़े तो अफ्रीका और यूरोप से आए मुसलमान, ईसाई और यहूदी विदेशी पर्यटकों द्वारा लिखित आंकड़े हैं।

जिन वस्तुओं का निर्यात होता था उनमें मुख्यतया सूती, ऊनी और रेशमी वस्त्र, लाख, इस्पात, लोहा और नील ही थे। इसके अलावा मसाले- लौंग, इलायची, कालीमिर्च, डोंडा, तेजपत्ता, दालचीनी, हल्दी, पीपल, पीपली, जायपत्री, सोंठ आदि, धातु-पात्र, कपूर, रंजक काष्ठ और रंग थे। पर सभी व्यापार व्यापारियों द्वारा होते थे, राजकर्मचारियों द्वारा नहीं। राज्य का काम व्यापारियों को सुरक्षा देना था। सोवियत संघ की नकल में साठ वर्षों तक भारत में व्यापार का एक बड़़ा हिस्सा सीधे राज्य के नियंत्रण में किया जाता रहा, जो 1947 तक भारत में अकल्पनीय था। इसलिए भारत में राजकोषीय आय का सबसे बड़ा स्रोत भूमि और कृषि उपज से प्राप्त राजस्व और कर ही थे। व्यापारियों से प्राप्त कर उसकी तुलना में कम था।

जो किसान परंपरा से इतने संपन्न थे कि वे राजकोषीय आय का मुख्य स्रोत थे, वे आज इतने गरीब कैसे हो गए हैं? क्यों खेती से प्राप्त आय को कर-मुक्त आय घोषित करना पड़ता है और क्यों किसानों की बदहाली का रोना रोया जाता है। इसे समझना आवश्यक है। इसके लिए सबसे पहले बंगाल की अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी की दशा का स्मरण करना होगा।
बंगाल में एक समृद्ध और उन्नत किसान समाज में पहले गतिहीनता और फिर बिखराव तथा कमजोरी किस प्रकार लाई गई, इस पर रमेशचंद्र दत्त, दादाभाई नौरोजी और रजनीपाम दत्त ने विस्तार से तथ्य दिए हैं। नवाबों से इजाजत लेकर लगान-वसूली के बेहतर इंतजाम करने के नाम पर नई आततायी व्यवस्थाएं लादी गईं और अपने अभिलेखों में वे कायर लुटेरे उसे ही भूमि-सुधार (लैंड-रिफॉर्म) बताते रहे। अठारहवीं शती के अंतिम सात वर्षों में जमींदारों से भयानक ऊंची दरों पर उनके इलाकों की लगान मांगी गई। जब अपने किसानों पर वैसी ज्यादती कर पाना पुराने सामंतों के लिए संभव नहीं हुआ तो छल-बल से उन्हें बेदखल कर तीन-तीन वर्षों के लिए जमींदारी की नीलामियां की जाने लगीं।

जमींदार बनने की होड़ में लोगों ने बढ़-चढ़ कर बोलियां लगाईं, फिर किसानों को लूट कर वह रकम मुनाफे सहित वसूली। जैसा ब्रिटिश संसद में कहा गया था, बंगाल के नीचतम, क्रूरतम अपराधी स्वभाव के लोगों से मिलीभगत कर कंपनी के लोगों ने पापाचार किए। नवाब से अनुरोधपूर्वक दीवानी का हक मांग कर ये सब दुष्कर्म किए गए। उससे जो तबाही मची, उसका रिकार्ड खुद कंपनी के महाप्रबंधक की परिषद के सदस्य फिलिप फ्रांसिस ने प्रस्तुत किया था। सूदखोर, लुटेरे और क्रूर लोग नए जमींदार बनने लगे। फिर स्थायी बंदोबस्त के नाम पर कार्नवालिस ने लूट को स्थायी बनाया।

यह ध्यान रहे, स्थायी बंदोबस्त भी पूरे बंगाल में नहीं हुआ था, केवल कंपनी वाले क्षेत्र में हो पाया था। कंपनी ने उसे सुधार का नाम देकर नवाब को सहमत किया। नवाब की आज्ञा के बिना कुछ करने की हैसियत में कंपनी वहां भी नहीं थी। जो लोग उसे पूरे भारत का मालिक दर्शाते हैं, उन पर केवल तरस खाया जा सकता है।

स्थायी बंदोबस्त के नाम से कंपनी अपने दलालों को जमींदार कहने लगी। ये नए और नकली जमींदार कंपनी को पहले से ज्यादा बंधी रकम देने लगे। कंपनी उसमें से पहले से ज्यादा बंधी रकम नवाब को देती, शेष बड़ी रकम खुद रखती। यह थी लूट की प्रक्रिया।

पुराने भारतीय जमींदार केवल इलाके के बड़े व्यक्ति होते थे। वे इलाके के खेतों के मालिक नहीं माने जाते थे। नए भूस्वामी पूरे क्षेत्र के वास्तविक मालिक बनाए गए, क्योंकि कंपनी ने खुद को अधीनस्थ क्षेत्र का स्वामी होने का दावा कर दिया। यह धौंसपट्टी और डकैती थी। ‘लैंडलार्ड’ कितनी बंधी रकम देंगे, यह कंपनी तय करती, उनसे सलाह किए बिना ही। जैसे कंपनी ने नकली लैंडलार्ड रचे, वैसे ही नकली पंडित और बौद्धिक रचे। राममोहन राय ऐसे ही नकली पंडित थे, जो दरअसल कंपनी के एक नौकर थे और कहीं के भी परंपरागत राजा नहीं थे। इसी क्रम में रैयतवारी व्यवस्था द्वारा किसानों की लूट का और विस्तार किया गया। परंपरागत भारतीय प्रथा यह थी कि भूमि गांव और बिरादरी की है, व्यक्ति की नहीं। परिवार उसका सीमित स्वामी था, खरीद-बिक्री के लिए गांव और बिरादरी की आज्ञा आवश्यक थी। इसी के समांतर परंपरागत शिक्षा संस्थाएं थीं, पंचायतें थीं और परंपरागत बौद्धिकता थी, पांडित्य था, ज्ञान-परंपराएं थीं। भारत की परंपरागत विद्या, ज्ञान, प्रबंधन, न्याय और अर्थव्यवस्था तथा समाज-व्यवस्था को नष्ट कर इंग्लैंड की ख्रीस्तीय परंपराएं लादी गईं। उद्देश्य था भारत की खेती, भवन, वस्त्र, वस्तु-व्यापार, जीवन-व्यापार, न्याय-व्यापार, अर्थ-व्यापार, शिक्षा-परंपरा सभी को विस्थापित कर इंग्लैंड की संस्थाओं के दलालों को यहां थोपना।

यह सदा ध्यान रखना चाहिए कि तमाम अत्याचारों के बाद भी भारतीय किसानों, शिल्पियों और व्यापारियों की धन बढ़ाने की क्षमता को अंग्रेज नष्ट नहीं कर पाए। इसीलिए 1947 तक ब्रिटिश भारतीय क्षेत्र में भी किसान की हैसियत धनदाता और राजकोष के पोषक की थी। फिर वह हैसियत घटी कैसे? क्योंकि कृषि उत्पादन की लागत लगातार बढ़ाई गई और उसके एवज में किसानों को वापस जो मिला, वह बहुत कम होता गया। माल बेचने पर घाटा हो तो वह उत्पादन अलाभकर कहा जाता है। कृषि उत्पादन आज अलाभकर हुआ क्यों? और कृषि-आय को कर-मुक्त रखने की सच्चाई क्या है? स्थिति यह है कि किसान को उत्पादन में जो लागत आ रही है, वह सब औद्योगिक क्षेत्र को जा रही रकम के कारण आ रही है। नए संकर बीजों की आपूर्ति औद्योगिक क्षेत्र से होती है, पहले किसान खुद अपने बीज रखते थे या इलाके के ‘व्यवहारÓ (बड़े आदमी) वह बीज ज्यादा मात्रा में रख कर देते थे और सवाया वापस लेते थे। आज तो स्थिति यह है कि कंपनियों से बीज खरीदिए।

पहले खाद, गोबर आदि से घर पर तैयार होती थी, अब कारखानों में बनी खाद खरीदिए। पानी परंपरागत जल-प्रबंधन से मिलता था, तालाबों का निर्माण समूह-श्रम से साझीदारी में होता था, स्वामित्व में सबका हिस्सा था। अब ट्यूबवेल और बिजली से पानी मिलेगा। बिजली की रकम औद्योगिक क्षेत्र को जाएगी। नीम के पत्ते, सरसों के तेल आदि की जगह, रासायनिक दवाएं लीजिए, छिड़काव कीजिए, पैसा औद्योगिक क्षेत्र में दीजिए।

नए कृषि-उपकरण भी कंपनियों से आते हैं, गांव के लोहार नहीं गढ़ते। अत: वह धन भी औद्योगिक क्षेत्र को गया। जमीन का राजस्व भी बढ़ा। इस प्रकार, बहुत बड़ी रकम औद्योगिक क्षेत्र को किसानों को देनी पड़ती है और साथ ही कृषि-आय पर कर, कृषि आय के हस्तांतरण पर कर, विविध नगदी फसलों पर कर, पशु-कर, परिवहन-कर, स्टांप ड्यूटी आदि पचासों प्रकार के कर राज्य को देने पड़ते हैं। ऊपर से किसानों के श्रम का कोई आकलन सरकारी मूल्य-नीति में नहीं किया जाता।

किसान को सारा ‘इनपुट’ औद्योगिक क्षेत्र से प्रदान किया जाए, यह व्यवस्था रची गई। हजारों सालों से पोषित धरती की उर्वरा-शक्तिऔर उत्पादकता के पोषण की कोई नीति नहीं बनी। पहले छठा हिस्सा राज्य लेता था। अब कुल उत्पादन के दाम का तीन चौथाई से ज्यादा हिस्सा उद्योगों को और राज्य को जाता है। फिर, किसानों के लिए खरीदी-मूल्य सरकारें घोषित करती हैं। यानी उसकी बिक्री में भी सरकारी दलाली आ गई, गांवों की परस्परता समाप्त कर दी गई। लूट का यह विशाल तंत्र रच कर फिर खेती की आय पर कर में छूट की नौटंकी रची जाती है। हजारों साल के दाता को गृहीता और कृपापात्र दर्शाया-बताया जाता है।

इस दिशा में व्यवस्थित शासकीय नीतियां चलाई गई हैं। पहले ट्रैक्टर का प्रचार किया गया। झूठे विज्ञापन और महिमा-गान द्वारा उसे आकर्षक बनाया गया। ट्रैक्टर आया तो कृषि-पशु गायब। पारंपरिक खाद गायब। किसान गोबर से भी वंचित। दूध को सस्ता रखा गया, जिससे गाय भी अलाभकारी हो गई। पशु-ऊर्जा की जगह औद्योगिक ऊर्जा लाने के लिए कत्लखानों और मांस-निर्यात को बढ़ावा दिया गया। संकर पौधे बौने हों, यह प्रबंध किया। इससे चारा कम और दूध कम। गाय-भैंस घटीं यानी किसानों का पोषण राज्य और नया उद्योगतंत्र खा गया- दूध, दही, मक्खन, सब किसानों के लिए दुर्लभ हो गए।

परंपरागत उर्वरक जो मुफ्त में सुलभ था, वह गायब करा दिया गया। बहुत ऊंचे दामों पर रासायनिक उर्वरक दिए गए। स्थानीय सिंचाई-प्रबंधन का विलोप कर उसे केंद्रीकृत किया गया, फिर उसकी भारी रकम वसूली गई। बैंकों से ऋण देने का प्रचार कर किसानों को लुभाया गया कि वे ट्रैक्टर लें, रासायनिक खाद लें, संकर बीज लें, जहरीले कीटनाशक लें, अविवेकपूर्ण सिंचाई की ओर बढ़ें, फसलों का ढांचा बदलें। इस प्रकार खेती को लाभकारी बनाने के नाम पर खेती-किसानी से सब कुछ निचोड़ लिया। प्रचंड प्रचार से कुछ वर्षों के लिए कैसे समूहों को बरगलाया जा सकता है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण है स्वाधीन भारत की कृषि, सिंचाई, बीज, खाद, कीटनाशक और कृषियंत्र आदि से जुड़ी नीतियां। इस तरह खेती से सब कुछ निचोड़ कर फिर कृषि-आय को कर-मुक्तकरने को अनुग्रह दर्शाया जाता है।

समृद्ध-सशक्त भारतीय किसान हजारों वर्षों से दाता था। उसे गृहीता बना दिया गया। प्रयास है कि किसानों की संतानें भूल ही जाएं कि वे हजारों वर्षों से कितने समृद्ध थे। उनमें हीनता आ जाए, दैन्य छा जाए। जिस पर नियंत्रण स्थापित करना है, उसके भीतर दीनता-हीनता जगाना बहुत पुरानी छल-नीति है। वही चल रही है। इसीलिए केवल कर-नीति पर विचार करने से काम नहीं चलेगा। संपूर्ण अर्थनीति, समाज-नीति, समाज-संरचना और समाज प्रबंधन पर विचार करना होगा।

चावल का जिक्र किसी भी बाइबिल में नहीं आता, ईजिप्ट की सभ्यता भी इसका जिक्र नहीं करती। पश्चिम की ओर पहली बार इसे सिकंदर लेकर गया और अरस्तु ने इसका जिक्र “ओरीज़ोन” नाम से किया है। नील की घाटी में तो पहली बार 639 AD के लगभग इसकी खेती का जिक्र मिलता है। ध्यान देने लायक है कि पश्चिम में डिस्कवरी और इन्वेंशन दो अलग अलग शब्द हैं और दोनों काम की मान्यता है। दूसरी तरफ भारत में अविष्कार की महत्ता तो है, लेकिन अगर पहले से पता नहीं था और किसी ने सिर्फ ढूंढ निकाला हो तो खोज के लिए कोई विशेष सम्मान नहीं मिलता।

इस वजह से पश्चिमी देशों के वास्को डी गामा और कोलंबस जैसों को समुद्री रास्ते ढूँढने के लिए अविष्कारक के बदले खोजी की मान्यता मिलती है लेकिन भारत जिसने पूरी दुनियां को चावल की खेती सिखाई उसे स्वीकारने में भारतीय लोगों को ही हिचक होने लगती है। कैंसर के जिक्र के साथ जब पंजाब का जिक्र किया था तो ये नहीं बताया था कि पंजाब सिर्फ भारत का 17% गेहूं ही नहीं उपजाता, करीब 11% धान की पैदावार भी यहीं होती है। किसी सभ्यता-संस्कृति में किसी चीज़ का महत्व उसके लिए मौजूद पर्यायवाची शब्दों में भी दिखता है। जैसे भारत में सूर्य के कई पर्यायवाची सूरज, अरुण, दिनकर जैसे मिलेंगे, सन (Sun) के लिए उतने नहीं मिलते।

भारतीय संस्कृति में खेत से धान आता है, बाजार से चावल लाते हैं और पका कर भात परोसा जाता है। शादियों में दुल्हन अपने पीछे परिवार पर, धान छिड़कती विदा होती है जो प्रतीकात्मक रूप से कहता है तुम धान की तरह ही एकजुट रहना, टूटना मत। तुलसी के पत्ते भले गणेश जी की पूजा से हटाने पड़ें, लेकिन किसी भी पूजा में से अक्षत (चावल) हटाना, तांत्रिक विधानों में भी नामुमकिन सा दिखेगा। विश्व भर में धान जंगली रूप में उगता था, लेकिन इसकी खेती का काम भारत से ही शुरू हुआ। अफ्रीका में भी धान की खेती जावा के रास्ते करीब 3500 साल पहले पहुंची। अमेरिका-रूस वगैरह के लिए तो ये 1400-1700 के लगभग, हाल की ही चीज़ है।

जापान में ये तीन हज़ार साल पहले शायद कोरिया या चीन के रास्ते पहुँच गया था। वो संस्कृति को महत्व देते हैं, भारत की तरह नकारते नहीं, इसलिए उनका नए साल का निशान धान के पुआल से बांटी रस्सी होती है। धान की खेती के सदियों पुराने प्रमाण क्यों मिल जाते हैं ? क्योंकि इसे सड़ाने के लिए मिट्टी-पानी-हवा तीनों चाहिए। लगातार हमले झेलते भारत के लिए इस वजह से भी ये महत्वपूर्ण रहा। किसान मिट्टी की कोठियों में इसे जमीन में गहरे गाड़ कर भाग जाते और सेनाओं के लौटने पर वापस आकर धान निकाल सकते थे। पुराने चावल का मोल बढ़ता ही था, घटता भी नहीं था। हड़प्पा (लोथल और रंगपुर, गुजरात) जैसी सभ्यताओं के युग से भी दबे धान खुदाई में निकल आये हैं।

नाम के महत्व पर ध्यान देने से भी इतिहास खुलता है। जैसे चावल के लिए लैटिन शब्द ओरीज़ा (Oryza) और अंग्रेजी शब्द राइस (Rice) दोनों तमिल शब्द “अरिसी” से निकलते हैं। अरब व्यापारी जब अरिसी अपने साथ ले गए तो उसे अल-रूज़ और अररुज़ बना दिया। यही स्पेनिश में पहुंचते पहुँचते अर्रोज़ हो गया और ग्रीक में ओरिज़ा बन गया। इटालियन में ये रिसो (Riso), in हो गया, फ़्रांसिसी में रिज़ (Riz)और लगभग ऐसा ही जर्मन में रेइज़ (Reis) बन गया। संस्कृत में धान को व्रीहि कहते हैं ये तेलगु में जाकर वारी हुआ, अफ्रीका के पूर्वी हिस्सों में इसे वैरी (Vary) बुलाया जाता है। फारसी (ईरान की भाषा) में जो ब्रिन्ज (Brinz) कहा जाता है वो भी इसी से आया है।

साठ दिन में पकने वाला साठी चावल इतने समय से भारत में महत्वपूर्ण है कि चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी उसका जिक्र आता है। गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन भी धान से आता है और बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति के समय भी सुजाता के खीर खिलाने का जिक्र आता है। एक किस्सा ये भी है कि गौतम बुद्ध के एक शिष्य को किसी साधू का पता चला जो अपने तलवों पर कोई लेप लगाते, और लेप लगते ही हवा में उड़कर गायब हो जाते। बुद्ध के शिष्य नागार्जुन भी उनके पास जा पहुंचे और शिष्य बनकर चोरी छिपे ये विधि सीखने लगे। एक दिन उन्होंने चुपके से साधू की गैरमौजूदगी में लेप बनाने की कोशिश शुरू कर दी।

लेप तैयार हुआ तो तलवों पर लगाया और उड़ चले, लेकिन उड़ते ही वो गायब होने के बदले जमीन पर आ गिरे। चोट लगी लेकिन नागार्जुन ने पुनः प्रयास किया। गुरु जबतक वापस आते तबतक कई बार गिरकर नागार्जुन खूब खरोंच और नील पड़वा चुके थे। साधू ने लौटकर उन्हें इस हाल में देखा तो घबराते हुए पूछा कि ये क्या हुआ ? नागार्जुन ने शर्मिंदा होते आने का असली कारण और अपनी चोरी बताई। साधू ने उनका लेप सूंघकर देखा और हंसकर कहा बेटा बाकी सब तुमने ठीक किया है, बस इसमें साठी चावल नहीं मिलाये। मिलाते तो लेप बिलकुल सही बन जाता !

सिर्फ किस्से-कहानियों में धान-चावल नहीं है, धान-चावल की नस्लों को सहेजने के लिए एक जीन बैंक भी है। अपनी ही संस्कृति पर शर्मिंदा होते भारत में नहीं है ये इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टिट्यूट (IRRI) फिल्लिपिंस में है। फिल्लिपिंस का ही बनाउ (Banaue) चावल की खेती के लिए आठवें आश्चर्य की तरह देखा जाता है। यहाँ 26000 स्क्वायर किलोमीटर के इलाके में चावल के खेत हैं। ये टेरेस फार्मिंग जैसी जगह है, पहाड़ी के अलग अलग स्तर पर, कुछ खेत तो समुद्र तल से 3000 फीट की ऊंचाई पर भी हैं। इनमें से कुछ खेत हजारों साल पुराने हैं और सड़ती वनस्पति को लेकर पहाड़ी से बहते पानी से एक ही बार में खेतों में सिंचाई और खाद डालने, दोनों का काम हो जाता है।
इस आठवें अजूबे के साथ नौवां अजूबा ये है कि भारत में जहाँ चावल की खेती 16000 से 19000 साल पुरानी परम्परा होती है, वो अपनी परंपरा को अपना कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता ! कृषि पर शर्माने के बदले उसे भी स्वीकारने की जरूरत तो है ही।
(जानकारी पुरानी नेशनल बुक ट्रस्ट की बच्चों की किताबों से, काफी कुछ इन्टरनेट पर भी मौजूद होगा ही)
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