यह वही कुर्सी है
यह वही कुर्सी है
जिस पर कभी
साहब बैठा करते थे
शान से
हुकुम चलाते थे
झिड़कियां लगाते थे
लाल पीली नजरें दिखाते थे
मातहतों को
भूल जाते थे घर परिवार
समाज के सारे रिश्ते
राष्ट्रीयता की बातें
इसी कुर्सी पर बैठकर
कुर्सी आज भी है
पर साहब नही हैं अब वे
ठीक ऊपर कुर्सी के पीछे
लगी है आदमकद एक तस्वीर
मुस्कुरा रहे हैं वे
नीचे कुर्सी पर बैठे
आदमजात को देखकर
जो बड़ी शान से
अपनी मूँछें ऐंठ रहा है
ऊपर की तस्वीर से बेखबर।।
...मनोज कुमार मिश्र "पद्मनाभ"।
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