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अर्थ का अनर्थ कर समाज को बरगलाओगे

अर्थ का अनर्थ कर समाज को बरगलाओगे

ताड़ो
ढोल की ताल 
हल्की सी थाप देकर
सुर के साथ है कि नहीं
पीटोगे तो टूट जायेगा
समझो
गँवार को 
उसकी भाषा से
बेवजह उलझना ठीक नहीं
इसे भी जानने का प्रयास करो
जन्मना जायते शूद्रः
संस्कारात् द्विज उच्यते
वह अछूत नहीं है
सुसंस्कृत बनाकर तो देखो
पशु भी प्राणी है 
पर मूक
जानने की कला सीखनी होगी
उसको भी अपने अनुकूल
बनाना होगा फिर तो
जंगल का राजा भी 
आपका आदेश पालक होगा
नारी तो आपकी सहधर्मिणी है
सहकर्मिणी है सहगामिनी है
स्वाभिमानिनी अनुगामिनी
मानिनी है सहचरी
आवश्यकता  तो पढ़ने की है
मनोभाव को ताड़ने की 
पीटने की नहीं
शब्द तो शबद है
गहरे पैठोगे तभी समझ पाओगे 
अर्थ को वर्ना बेवजह
शोर मचाओगे
अर्थ का अनर्थ कर समाज को
बरगलाओगे
अपनी ही भद्द पिटवाओगे।।
....मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"।
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