नेगेटिव-पोजेटिव-इन्ट्रोगेटिव
कमलेश पुण्यार्क "गुरु जी "
चुँकि उनकी बे सिर-पैर की बातें भी गौरतलब होती हैं, इस कारण मैंने सवाल के बदले सवाल करना ही उचित समझा।
ऐसा कैसे हो सकता है काका? जाँच में कोई वैक्टिरीया-वायरस निकलेगा या नहीं भी निकल सकता है। हड्डी टूटी होगी या नॉर्मल हेयर फ्रैक्चर हो सकता है,कहीं ऑब्सट्रक्शन होगा,कहीं एनफ्लामेशन, टी.सी., डी.सी. नॉर्मल होगा या कम या ज्यादा। यही सब तो पता चलता है न किसी भी मेडिकल-टेस्ट-रिपोर्ट में। अब ये साईन ऑफ इन्ट्रोगेशन कहाँ से आ गया आपके ज़ेहन में?
“ यही तो मैं सोच रहा हूँ। पता नहीं अबतक किसी डॉक्टर का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया। डॉक्टर नहीं तो कम से कम स्वास्थ्य मन्त्री का ध्यान तो इस ओर जरुर जाना चाहिए। दुनिया का सबसे बड़ा प्यारा-न्यारा लोकतन्त्र है हमारा, जहाँ हर अनहोनी होनी में बदल सकती है— बीसियों वर्ष पहले के मुर्दे वोट दे सकते हैं, मन हो तो पेनशन भी उठा सकते हैं; जाली सर्टिफिकेट पर बेरोजगार युवा सरकारी नौकरी कर सकते हैं, जब्त किए गए शराब चूहे पी जा सकते हैं, MBA - MCA खोमचा-ठेला चला सकते हैं, बेडरुम में बैठकर ग्राउण्ड रिपोर्टिंग की जा सकती है, नर्सिंग या कम्पाउण्डरी सीख कर मेज़र ऑपरेशन किया जा सकता है, कुछ काम न मिले तो टीक-टीका धारण कर नामी-गिरामी बाबा बना जा सकता है और वो भी सम्भव न हो तो सांसद, पार्षद, विधायक बनने से भला कौन रोक सकता है ! ऐसी अजूबी व्यवस्था में जाँच रिपोर्ट इन्ट्रोगेटिव क्यों नहीं हो सकता? ”
काका के सवाल पर सवाल उठाना लाज़िमी है। अतः पूछना पड़ा— आँखिर इतनी नेगेटिवीटी आपके अन्दर आयी कहाँ से काका ! हमेशा कोई न कोई नकारात्मक विचार लिए फिरते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि नकारात्मक विचारों के प्रति सावधान रहना चाहिए, क्योंकि ये एक प्रकार का मानसिक रोग है।
काका ने सिर हिलाया— “ क्या करुँ बबुआ ! तुम्हारे जैसा होनहारी का बिल्ला लटकाए नहीं फिर रहा हूँ न । दस साल से कम्पटीशन की तैयारी में लगे, घर का आटा गीला कर रहे हो और चपरासी का कम्पटीशन भी नहीं निकाल पाए। जरा साबित करो न कि मैं रत्ती भर भी झूठ कह रहा हूँ। खैर छोड़ो, इन फिज़ूल की बातों को। मुद्दे की बात पर आओ। मेरा कहना सिर्फ इतना ही है कि नेता-अभिनेता की चाह में राह ही राह है। ”
फिर आप इधर-उधर टहलने लगे। बात कर रहे थे रिपोर्ट में साइन ऑफ इन्ट्रोगेशन की और बात करने लगे लोकतन्त्र की खामियों की। नेता तो नाक का नेटा होता ही है, छिड़क कर आगे बढ़ने की जरुरत है, अन्यथा पीछे पड़ जायेगा तो बिना वोट लिए जान नहीं वक्शेगा। रही बात अभिनेता की, तो उसकी भी इस बार पोल खुल ही गयी—इतने दिनों से गंजेड़ियों-नशेड़ियों-हेरोईन्चियों को हम अभिनेता माने बैठे थे। सी.बी.आई, एन.सी.बी., ई.डी.सबके सब ताकते ही रहे गए अपने-अपने पासपोर्ट-बीजा के लिए। खैर, छोडिए इन बातों को। आपके साथ-साथ मुझे भी बहकने की लत पड़ती जा रही है। मुद्दे पर आइए। साइन ऑफ इन्ट्रोगेशन इन मेडिकल रिपोर्ट पर चर्चा करें।
“देखो बबुआ ! न खुद बहको और न औरों को बहकाओ, जैसा कि अभी किसानों को बहकाया जा रहा है । वैसे भी, बहकाने-फुसलाने का ठेका नेताओं के पास है, तो फिर हम-तुम क्यों चिन्ता करें। मेरा ताजा सवाल सिर्फ इतना ही है कि कोरोना संकट में लम्बे अन्तराल के बाद स्कूल खोले गए। खुलने के बाद जानकारी के लिए जाँच तो जरुरी है न कि महामारी की प्रतिक्रिया कैसी है, हमारे नौनिहालों पर इस संक्रमण का कैसा असर है—नकारात्मक या सकारात्मक। सुनने में आया है कि अपने ही राज्य के एक स्कूल में 25 बच्चों के रैपिड एंटीजन टेस्ट में 24 बच्चों के रिपोर्ट पॉजेटिव निकले। यहाँ तक तो बात समझ में आती है। किन्तु बात वहाँ जाकर उलझ जाती है जब अगले ही दिन सिविलसर्जन ने आधिकारिक घोषणा की कि वो रिपोर्ट ही बिलकुल गलत था, अतः पुनः जाँच करायी गयी, जो बिलकुल नेगेटिव निकला। चुँकि इस तरह की मानवीये भूलें हुआ करती हैं। अतः इस पर ध्यान नहीं देना चाहिए...। ”
सो तो है। मानवीय भूल तो क्षम्य होनी ही चाहिए। मेरे समर्थन पर काका ने तर्जनी हिलायी— “ नहीं...नहीं...नहीं बहुआ ! ऐसी भूल तुम ना करो। मानवीय भूल क्षम्य हो सकता है, किन्तु अमानवीय भूल के बावत क्या कहोगे? मजेदार बात तो ये है कि पहली बार जाँच करने वाले डॉक्टर का दावा है कि पिछले किसी भी जाँच में आजतक उससे कोई चूक हुयी ही नहीं है, यानी कि रिपोर्ट पॉजीटिव ही है। इतना ही नहीं उसने तो दूसरी वाली रिपोर्ट पर ही सवालिया निशान लगा दिए, क्यों कि महज़ छः घंटे के अन्दर निगेटीवीटी कहाँ से आ गयी। गौरतलब बात है कि सिविलसर्जन साहब इस बावत मौनव्रत में हैं।”
अच्छा तो अब समझा, आपका सवाल कहाँ उलझा हुआ है। जाँच-कर्ता डॉक्टर अपेक्षाकृत छोटे तबके का इन्सान हुआ करता है, जबकि सिविलसर्जन साहब काफी बड़े औहदे वाले होते हैं—जिला इनके कब्जे में होता है। और आप जानते ही हैं कि बड़ों का सम्पर्क और बड़ों से होता है। अब सोचने वाली बात है कि स्वास्थ्यमन्त्री की मर्जी यदि नेगेटिव रिपोर्ट की है, तो नेगेटिव रिपोर्ट की घोषणा क्यों न की जाए? और इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि मौनव्रत भंग करने का पाप भला कोई क्यों लेना चाहे? खैर,जो भी हो—ये सब बड़े लोगों की बातें हैं। हम छोटे लोग इसमें क्यों मगज़पच्ची करें ! मैं तो सिर्फ इतना ही कहूँगा कि साइन ऑफ इन्ट्रोगेशन का भी झमेला छोडिये। इससे भी मजेदार होता है— साइन ऑफ एक्सक्लामेशन....नहीं समझे शायद आप...अरे वही, जिसे हिन्दी वाले विस्मयादिबोधक चिह्न कहते हैं। लोकतन्त्र में सारे रिपोर्टों के आगे यही चिह्न ज्यादा शूट करता है। आपका क्या ख्याल है? जरुर बतलाइयेगा।
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