मजदूर।
कोई तो होगें मजदूरों की महफिल में आने वाले,
समीप से देखें होगें उनके पैरों के गहरे-गहरे छाले।
आंसुओं से सरगम की साज बजती है,
कोरोना, गरीबी की गूंज होती है मौत के हवाले,
प्रसव के बाद जिन्होंने यात्रा जारी रखी, तपन में,
रूठ गये तकदीर से उनके रोटी के निवाले।
पसीना बेचकर अपना परिवार सजाया था, कभी,
शहर से लौट गये हैं वो आपकी जिंदगी सजाने वाले।
खैर है गांव के दरवाजे खुले रह गये उनके लिये,
लेकिन कब तक खुल पायेंगे उनके परवरिश के ताले।
खता किश्मत से हुई या खता दीनता से हुई,
यहाँ कुआं वहाँ खाई है, वो सम्हले या सम्हालें।
राजेश कुमार, जबलपुर, म.प्र.।
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