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सही - गलत

सही - गलत

मनोज कुमार मिश्र
बाबूजी जरा देखिए तो मेरी पेंशन आ गयी क्या?
लाओ पासबुक दो।
अरे बाबा  ये हमारी ब्रांच का एकाउंट नहीं है।
बाबूजी हम तो कोनो दूसरे बैंक को जानते ही नहीं। पिछले 40 साल से इसी बैंक में आते रहे हैं।जब ये बैंक उधर दूसरे चौक पर था ना तभी से।
पर बाबा तुम्हारा एकाउंट तो हमारी चौक ब्रांच का है, वहीं जाओ। चलो हटो, मुझे और भी काम हैं।
न बेटा देखो ना, हमरा तो एटीएम भी ले लिया है, पेंशन का एको पैसा नहीं देता है, सब निकाल लेता है। बंद कर दो एटीएम मेरा।
देखिए सर ये बूढ़ा मुझे काम नहीं करने दे रहा है, प्लीज सर.....
मेरी नज़र उस वृद्ध पर पड़ी। सत्तर से ऊपर की पकी उम्र,साफ कपड़े, आंखों में दीन भाव, आँसू निकलने को बेताब। मैन उसे अपने केबिन में बुलाया। क्या बात है बाबा? 
सर, पेंशन भी नहीं देता है, एटीएम भी ले लिया है। पैसा खाता से उठ जाता है। घर बहुत दूर है, आ नहीं सकते है, आंख से दिखता नहीं। आज किसी तरह पूछते पूछते आया हूँ।
बुढ़ापे की लाचारी इंसान को क्या क्या नहीं करवाती। अच्छे परिवार का दिखता है, कपड़ों से झलक रहा है। परिवार वाले शायद अपने मे मगन है। बूढ़े की भी तृष्णा गई नहीं है। वो जानता है कि अगर पैसे पर अधिकार नहीं तो कोई पूछेगा नहीं। उम्र के इस पड़ाव पर हारी बीमारी भी लगी ही रहती है। बूढ़ा अपने पेंशन का अधिकार खोने को या त्यागने को तैयार नहीं है। उधर परिवार के लिए इसका जिंदा रहना बहुत जरूरी है। बिल्कुल रोड पर लावारिस घूमती गौ की तरह जिसे सुबह दूह लेने के बाद रोड पर आवारा घूमने के लिए छोड़ दिया जाता है। चौक ब्रांच को फ़ोन करके उसका खाता अपनी ब्रांच में मंगवा लिया।
अगले महीने बूढ़े का पेंशन आया तो मैंने खाते पर रोक लगा दी। बूढ़ा आया तो उसके खाते से रूपये निकलवा कर उसके हाथ मे दे दिया। बूढ़े की आंखें चमकने लगी। एक एक नोट को बड़ी हसरत से गिन रहा है। मुझसे विदा लेकर वह चला जाता है। मन में एक अच्छे काम को करने के लिए संतोष का भाव आ जाता है। शाम को बैंक के दरवाजे पर शोर गुल सुनकर देखने आता हूँ तो पाता हूँ कि एक बूढ़ी बैंक वालों को कोस रही है। सत्यानाश हो उ मुझौसा का, कौन उसको पैसा दे दिया, सब शराब में बहा दिया। अब महीने भर खाएंगे क्या?
अब चक्कर मुझे आ रहे थे - सही कौन था।
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