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नर पिशाच (कविता)

नर पिशाच (कविता)

नर पिशाच-
ओ देखो,
कैसे दिखा रहा है?
सरेआम नंगा नाच।।
          नर पिशाच।।
और हम देख रहे हैं,
अपनी आंखों के आगे।
लुटते बेटियों की आबरू,
और हम लुटते,छिपते,भागे।
मानों पहन लिए चूडी कांच।।
                      नर पिशाच।।
आखिर अबतक लुटती रहेगी,
खुलेआम सड़कों पर बेटियां।
और हम जाति,धर्म,भेद बस -
भरते रहे उनकी मत पेटियां।
बिना परखे बिना जांच।।
                नर पिशाच।।
जो कहते रहें सभा संसद में,
बेटी पड़ाव बेटी बचाव।
आज का दृश्य देखकर के -
 कदम उठा क्या किए बर्ताव।
किया कुछ कानून बांच।।
                नर पिशाच।।
अब बेटियां सुरक्षित नहीं रही,
न घर में,न गांव में न शहर में।
वह भोग की वस्तु मात्र बन गई,
दरिंदों की बस्ती,हवसियों की नजर में।
मत समझा मुझे झूठ-साच।।
                    नर पिशाच।।
दुनियां में बचाना है मात्र तीन,
पुर्वजों ने कहा जोरू,जर,जमीन।
पर हम आधुनिकता में पड़कर -
सारा ताना बाना कर दिए छिन्न-भिन्न।
दें रहा देखो प्रतिष्ठा पर आंच।।
                        नर पिशाच।।
      ---:भारतका एक ब्राह्मण.
    संजय कुमार मिश्र "अणु"
         वलिदाद,अरवल (बिहार)
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