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रजनियाँ (मगही कथा)

रजनियाँ (मगही कथा)

रजनियाँ कहानी की भी एक छोटी कहानी है । १९८०के दशक में इसका सृजन हुआ था एक सत्य घटना पर आधारित कथा के रुप में, तब इसका असली नाम रखा गया था— डोमिनियाँ । इस नाम के अलावा इसका दूसरा नाम सार्थक हो भी नहीं सकता, किन्तु हमलोग हैं थोड़े लकीर के फकीर वाले । नियम-कानून के पाबन्द । हालाँकि काम वही करते हैं जिसकी मनाही होती है, पर थोड़ा ढांक-ढूक कर । जैसे शराब नहीं पीनी है, तो छिप कर पीयो, घूस नहीं लेनी चाहिए, तो छिप कर लो, यानी जो काम सीधे तरीके से करने की समाज या संविधान से मनाही है, वो काम हम उलट-फेर करके करते रहते हैं ।
कुछ ऐसी ही घटना डोमिनियाँ के साथ भी हुयी । उन दिनों मेरी कहानियाँ आकाशवाणी पटना और राँची से समय-समय पर प्रसारित हुआ करती थी । १५ जून १९९३ को रजनियाँ की भी बारी आयी । नियम तो है कि लेखक अपनी रचना वाकायदा भेजे वहां । कड़ी चयन-प्रक्रिया के पश्चात चुनाव हो जाने पर, छपे हुए फॉर्मेट पर लिखित रुप से कहानी के शीर्षक, रेकॉर्डिंग का समय और तारीख आदि भर कर डाकद्वारा भेजी जाती थी । डाकविभाग तो अपने ही अन्दाज में काम करने में माहिर है । सामान्य पत्र समय पर पहुँचने की कोई गारन्टी तो होती नहीं । कई बार ऐसा हुआ कि पत्र मेरे स्थायी पते पर गांव में भेजा जाता,जो समय पर मिलता ही नहीं । मैं उन दिनों पटने में ही रहता था । पदाधिकारियों से निवेदन किया कि एक अनुमानित समय आप बता दें, मैं स्वयं ही आकर पता कर लिया करूंगा कि कब मुझे समय दिया जा रहा है । हुआ भी कुछ ऐसा ही । सप्ताह भर बाद अचानक आकाशवाणी पहुँचा तो मालूम चला कि मेरे नाम की चिट्टी भेजी जा चुकी है, आज ही रेकॉर्डिंग का समय दिया गया है, अच्छा हुआ कि हम पहुँच गए ।
उस समय मेरी संचिका में हिन्दी की एक-दो कहानियों के साथ मगही की कहानी रजनियाँ भी थी । चुंकि रेकॉर्डिंग ‘मागधी कार्यक्रम ’के लिए होना था, इसलिए हिन्दी कहानी तो चलती नहीं । इतना काबिल अनुवादक भी मैं नहीं हूँ कि हिन्दी को सीधे-सीधे मगही में रुपान्तरित करके रेकॉर्ड करा दूं । समय बिलकुल था नहीं उनके पास । अन्ततः डोमिनियाँ को पटल पर रखा, जिसे देखते ही महाशय एकदम भड़क गए - “ क्या तमाशा लगा रखे हैं, अपने को लेखक कहते हैं और इतना भी अपडेट नहीं रहते कि ऐसे शब्दों का प्रयोग सार्वजनिक रुप से करना संविधान में वर्जित है । डोमटोली और डोमिनियाँ शब्दों का प्रसारण आकाशवाणी से कतयी नहीं हो सकता । मेरी नौकरी लेंगे क्या ? “
अपनी मुस्कुराहट को छिपाते हुए मैंने सहज रुप से कहा- आप चिन्ता न करें । एकदम रेडियोटाइम से एक मिनट का समय दें। न तो आपकी नौकरी जायेगी और न रेकॉर्डिंग टाइम फेल होगा ।
अगले ही क्षण हम रेकॉर्डिंगरुम में थे । डोमिनियाँ को रजनियाँ किया और डोमटोली को दखिनवारी टोला- बस मेरा काम हो गया । कुछ देर पहले आग उगलने वाली साहब की आँखें अब मुझपर भौचंके टिकी थी, मुस्कुराहटों के साथ मेरा पीठ थपथपा रहे थे उनके हाथ – कमाल के हो यार ! पल भर के लिए भी तुम्हें टेनशन नहीं हुआ...।
और इस प्रकार डोमिनियाँ हो गयी रजनियाँ । वैसे भी कथा-नायिका तो रजनियाँ पहले से थी ही । मैंने तो केवल टोले का नाम बदला और वो भी इसलिए कि मेरे गांव में हरिजनों की वस्ती गांव के दक्खिन में ही है । तो आइये, मेरी मगही रचना का आनन्द लें—
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आज मुंहलुकाने में कोहराम भेल कि डोमटोली में आग लग गेल । बोरिंगरोड के किनारे बसल सउंसे डोमटोली छनभर में जर के सोआहा होगेल । पूस के कनकनी, ऊपरे से शीतलहरी , सेहू में भिनसहरा के पहर । आऊ बात हे डोमटोली के । केकरा एतना फिकिर हे कि दौड़के दमकल के खबर करो ! जनता जनार्दन के पहरुआ सरकार इन्तजाम तो एतना कएले हेऽ , बाकी टेलीफूनुओं तो हई बड़कने के कोठिया में न !ऊहां तो कनकनी से बचे ला बिजुलिया ओला मशीनवों हई , जे गरम-गरम हावा देव हई । धुआँ-धुकुर ओला बोरसिया तो जब रहतयी तऽ गरीबवे के झोंपड़िया में न ! टूटल पूरान-धूरान झिलंगा खटिया पर मैल-कुचैल गमकइत फाटल लेदरा में किकुरियायेल, जल्दी से बिहान होयके असरा में परल दूबर-पातर, सूखल-टटायेल देह में अपन करमभोग भोगइत जीव आँखिर करीये का सकहेऽ ? जाड़ा लगबे करतई । बोरसी भरबे करत । सूतइत खानी खटिया तर धरबे करत । टूटल खटिया के लटकइत बाध(जोर) में बोरसी के आग धरबे न करत !
अगल-बगल कहीं पानीयों के ठेकान ना हेऽ जे से जल्दी से आग बुतावत जाओ । सड़क के किनारे गढ़हा-गुढ़ही में टोला-महल्ला के बहइत नली के बटोरायल तनीमानी पानी हइयो हेऽ तो सबके हींआ बाल्टी कहां हे जे कि हाली-हाली पानी लाके आग बुतावल जाओ ! लोटा-छीपा, टीना-टूनी से केतना पानी ढो आओ ! बांस आऊ चिमकिली से बनल झोंपड़ी के जरे में समये केतना लगो ! किरीन फूटे के पहिलहीं सब के सब झोपड़ी जर के खाक होगेलक ।
आग उठल हल रजनियाँ के झोंपड़ी में से । रजनियाँ आऊ ओकर विधवा माई - एही दूनों जीव रह हलन ऊ झोंपड़िया में । लगले-लगले आऊ ढेरमानी ओइसने-ओइसने झोंपड़ी बनल हल । रजनियाँ के माई दिनभर सूप-दौरी-बेना बिनइत रह हल । पहिले एने-ओने घूम-घूम के बेंचे जा हल, बाकी जब से रजनियाँ सरेक हो गेल, होंशियार होगेल, तब से घूमघाम के बेचे ओला काम एकदमे से खतम हो गेल ।
रजनियाँ के हाथ में भगवान गजबे के हुनर देले हथ । अब ओकरा ही सूप-दौरी-बेना कमे बिनाहेऽ । हरिअर-हरिअर बाँस से एकदम पतरे-पतरे केंवची आऊ चीसी निकाल के एतना सुघर-सुघर झंपोली, मौनी आऊ डोलची बीनऽ हेऽ रजनियाँ कि कीनेला रोज सांझ के कोठी ओलन लाइन लगवले रह हथ । रजनियाँ के गोर-गोर दूबर-पातर फुलहार हाथ से बीनल झंपोली और डोलची के संऊसे पटना में बड़ी परचार हेऽ । गवना-विआह के लगन के टेम में तो रजनियाँ माय-बेटी के ठीक से खाहूँ-सूते के मोका ना मिलहेऽ । गंहकी एतना बढ़ जा हथ कि राते-दिने दूनों मतारी-बेटी बेदम रह हथ । लगन के टेम में रजनियाँ के पढ़हूं के मोका ना मिले तनीको ।
जी हं ऽ , रजनियाँ पढ़वो करहेऽ । सऊँसे डोमटोली में एगो रजनिये हेऽ जे कि सरकारी स्कूल में पढ़े जाहेऽ । दिनभर हाड़तोड़ के कामो करहेऽ, आऊ रात के बिजुली के खामातर बोरा बिछा के पढ़बो करहे । रजनियां के माई सुरुये से बेटी के पढ़ावे पर धेयान रखले हेऽ । सूप-दौरी बेंच के, पेट काटके कइसहूँ बेटी के पढ़ाना जरुरी बुझाहेऽ ओकरा । जे देख हे से हँसी उड़ाव हेऽ -- घर में भूंजल भांग ना आऊ डेउढ़ी पर मुजरा...खायेके ठेकान ना आऊ बेटी इस्कूलिया बनल हेऽ...लगइत हेऽ कि बाबुये जनमवले हेऽ... पढ़-लिख के ओकालत करतथिन...झोला उझिलतथीन रोपेया के... ।
कहऽनिहार कहते रहलन, हँसी-चउल करते रहलन,बाकी रजनियाँ के माई कान में ठेंपी डलले, चुप लगवले रहल । केकरो बात के जबाब ना देखक । रजनियाँ पढ़इत रह गेल ।
करमठ के भगवानों सहारा होव हथ । दिन दोगुना रात चगुना बढ़ोतरी होइत गेल रजनियां के माई के काम में आऊ रजनियां बढ़ईत गेल इस्कूल के कलास में । नेटा चुअवइत पहिला कलास के रजनियाँ एकदिन मैटरिक के छरदेवारी फान गेल । अब इ रजनियाँ से के हांथ मिलावत डोमटोली के अदमी ! संवारल सुधर रजनियाँ बैंगनी गाऊन आऊ उजर स्कर्ट पेन्ह के गोड़ में चप्पल डाल के बहरी निकले तो टोला ओलन दांत तर अंगुरी धयले आँख फार-फार के देखइत बैठल रह जाथ । आऊ फीन देकतहीं-देखतहीं एकदिन रजनियाँ आई.ए. पास कर गेल । ओह दिन तो देखताहर के धरताहर लगे के जोग लग गेल, जब हाला भेल कि रजनियाँ के अब आगे पढ़े ला सरकारी मोसहरो मिलतयी । जे सुने से रजनियाँ के देखे दऊड़ल आवे । अइसन लगे जैसे कि रजनियाँ डोमनी ना है, कोई देवी उतरल हथ अकास से । देखताहर के ओही भीड़ में गुनीबाबा के दुलरुआ सुधांशुओ हलन । सुधांशु रजनियें के साथे पढ़ हथ । रजनियाँ के आगे बढ़ावे-पढ़ावे में सुधांशुओ के बड़का हाथ रहल हे । ऊ बेचारा हरमेशा ओकरा कोई न कोई विधि से मदत करइत रह हथ । सुधांशु के बाबूजी पटना के नामी-गिरामी पंडित गिना हथ ।
रजनियाँ के बाप तो कबे मर गेल हलन , ओकर जनम के ढेर पहिलहीं । मरदाना के मर गेला पर रजनियाँ के माई दानादाना के मोहताज हो गेल हल । बेचारी के एतनों औकाद ना हल कि एगो संऊसे बांस कीनों । आ जब बांसे ना हेऽ तो सूप-दौरी बिनायत कऊची से ? एकरा-ओकरा से टूका-टूकी बांस पैंइचा मांग के कइसहूँ गुजरा करे बेचारी ।
अइसहीं एक दिन पैंइचा के बांस से दूगो बेना आऊ एगो मौनी बीन के, तीन दिन के उपासल रजनियाँ के माई जेठ के कड़कड़ाइत दुपहरिया में बहरी निकल गेल, इ सोच के कि बिक जाये तो पैंइचा लौटा के एकाध सांझ के अनाज-पानी के इन्तजाम होवे । बाकी हाय रे करम ! बोरींगरोड से चलइत-चलइत कंकड़बाग पहुँच गेल । गरमी से पसीझल कोलतार के सड़क पर खाली गोड़े चलइत-चलइत तरवा फोरे-फोरे होगेल, बाकी बेना के किनताहर ना भेंटलन केऊ । एकाधगो मिलवो कएलन तो गरजू समझ के रोपेया के आठ आना मोलावे लगलन ।
पिआसे मुंह चटपटवईत, बेना लेइजा बेना...मौनी लेइजा मौनी...करइत आगे बढ़ल जाइत हल रजनियाँ के माई । गरमी से तबाह होके, घर से बहरी पीपर के पेड़ तर बनल चउतरा पर चटाई बिछवले सूतल गुनीबाबा खुरखुरा के उठलन, आऊ चाल कयेलन बेना ओली के । गुनीजी पूरा गुनी हलन । बेना के दाम-दोकानी करे में खूब झींझ कयेलन, आऊ अन्त में झिंझुआ के कहलन— “ तोरा बेंचे ला हऊ कि खाली बतकहिये करेला हऊ ? पैसा लेके का करबे- खाये-पीये के चीजे-वतुस न कीनबेंऽ ? अंटे-सतुआ न चहिअऊ ? कहइत हेंऽ कि तीन दिन से कुछ खयले ना हीअ । हम तूरतहीं आयेल हीअ जजमान हीं से पूड़ी-बुनियां-आलूदम लेके । भतुआ के रईतो आऊ आम के कुँचो हऊ साथे-साथ । घर में कोई खताहर हइये ना हे । नन्हका के लेके ओकर माई चार दिन से नइहर गेल हथ । तू भर पेट खाले । कहबे तो सांझों लागी दे देबऊ । तू दूनों बेना आऊ मौनी हमरा दे दे । एक-दू दिन में बनतऊ तो एगो सूपो बीन के पहुँचा जइहें । पड़िताईन बड़ी दिन से हल्ला कएले हथ, सूप टूट गेलइन हे ...। “
भूख-पियास से बेचैन अन्हरी के मिलल दूनों आँख । जहां एको सांझ के लिटियो के ठेकान ना हल, तहां दूनों सांझ के पूड़ी-बुनियां-आलूदम...। दम के नांवें से रजनियां के माई बेदम हो गेल जल्दी से खायेला---पेट के दाह अइसने चीज होवहेऽ । जे भोगले-देखले हे ओही बूझ सकहे ऽ । पेटभरुआ का जानों इ मरम....।
हुँकारी भरते गुनीबाबा चट से लोटा के पानी लाके धर देलन माटी के सिकोरा में ढार के ढाबा में । आऊ अंगोछी में बान्हल ढेरमानी पूड़ी-बुनिया लाके पतल पर परोस के भीतरही बोलवलन ।
बाप रे बाप ! एतना में तो चार दिन खायेब...मने मन उ सोचलक । रोंआँ रोआँ से गुनीबाबा के अशीर्वाद देइत , हाली-हाली खाये लगल । ढाबा में चौकी पर पलथिया मरले, हाथ में नाया बेना डोलवइत गुनीबाबा हँस-हँस के बतिआये लगलन । अइसन लगइत हल कि पंखा हउँक के खिवाइत हथ ।
खा-पीके, छाना के मोटरी बान्ह के रजनियाँ के माई चले ला तैयार भेल तो गुनीजी के छोह लगल— “ अब कउन गरज में जाइत हें इ लहर-लूक में ? खाके तनी अराम करलें इहयीं, फिन जइहें ।
गुनीबाबा के बात मान के उहंई बैठ रहल—“ आच्छा अपने कहइत ही त तनी सुसताइये लेइत हीऽ ।”बाकी रजनियाँ के माई केतना सुसतएलक से ओकरा जनमभर इआद रहत । मोछतर मुसकाइत, डाढ़ी हिलवइत गुनीबाबा हँसी-चउल पर ऊतर अयेलन । बात निकलल जवान विधवा से आऊ चल गेल विआह तक— “ तू विआह काहे ना कर लेइत हे ऽ ? कइसे कटतऊ संऊसे जवानी ? ”आऊ फिन ओकर जवानी देख-देखके गुनीबाबा के लार टपके लगल । “ हँ-हँ...इका करइत ही बाबाजी... ”– बेचारी करते रहल, बाकी तबले गुनीजी चट से उठके फट से केवाड़ी लगा देलन ।
ऊहेऽ बन्द केवाड़ी के खुला सबूत हेऽ रजनियाँ ।
रजनियाँ के संऊसे देंह राते के अगलगी में झोलसा गेल हेऽ । कइसहूँ टांग-टूंग के बाड़ा अस्पताल पहुँचावल गेल । इमरजेंसीबाड में रजनियाँ के जान बंचावेला एक तरफ डॉक्टर परेशान हथ तो दूसरा दने बेदम हथ गुनीजी के लाल सुधांशु बाबू ।
रजनियाँ के जिनगी में ढेर दिन से उगल हथ सुधांशु । दूनों के परेम दिनोंदिन ऊमड़ल जाइत हे सावन-भादो के नदी-नाला नियत । जात-पात से ऊपर उठल परेम के अदमी आन्हर कहहथ एही से । मज़हब के छरदेवारी में, धरम के खूँटा में परेम कहियो बन्हायेल ना हेऽ । जब-जब परेम के लहर उठल हेऽ, धरम के खूँटा डगमगाये लगल हेऽ । बाकी हे तो इ आन्हरे नऽ ! असली अँखिगर तो कामवासना हेऽ जे तनीसा में डगमगाये लग हेऽ । कामदेव अइसे बेकल ना करितन हल तो विश्वामित्र के धेयान कइसे टूटीत मेनका के घुँघरु सुन के ? आऊ धेयान ना टूटीत तो शकुन्तला कइसे जनमतन हल ? आऊ जब शकुन्तला होइये गलन , तो रजनियाँ काहे ना हो सके ?
आज रजनियाँ जिनगी आऊ मौगत से जूझ रहल हेऽ । डॉक्टर निराश हो रहलन हे । भगवान के गोहरवइत सुधांशु उदाश हो रहलन हेऽ । दुःख से बेअग्गर रजनियाँ के माई तो पहिलहीं से हताश हेऽ । उ लोटइत रहल, छटपटाइत रहल । सुधांशु भगवान के गोहरवइत रहलन, पैसा पानी नीयत बहवइत रहलन, डॉक्टर-नर्स दौड़इत रहलन, बाकी पिंजड़ा में बन्द रजनियाँ के परानपखेरु ऊड़िये गेल अन्त में । सुधांशु तो उगले रहलन बाकी रजनी के जिनगी इन्जोर ना भेल ।
जिनगी इन्जोर होइत कैसे ? चरचर गो गेंदरा, ऊपर से दू बोतल माटी के तेल, ओकरा पर सलाई के एगो काठी भक्कऽ से लहका देलक सबकुछ...।
दू दिन से आग भीतरे लहरइत हल, तब कोई ना जनलक । आज बहरी भभक गेल तो सउँसे दुनिया जान गेल । बाकी दुनिया का जानत ! कुछ ना जानत । दुनिया के एकरा से का मतलब हे - आग भीतरे लहरो चाहे बहरी...दुनिया अइसहीं चलइत हेऽ से चलइत रहत ।
दुनिया रहबे करत, गुनीबाबा रहबे करतन । गुनीबाबा रहतन तो लार तपकबे करत , केवाड़ी बन्द होयबे करत, रजनियाँ जनमबे करत । आग रहबे करत । जनमत तो जरबे करत – अपने से जरो कि जरावल जाओ ।
जात-पात के आग, छूआ-छूत के आग, धरम-ईमान के आग...पता न केतना तरह के आग हे दुनिया में...। ढोंग-ढकोसला के कम्बल से केतना कइसे तोपायेत एतना आग ? असली धरम-ईमान आऊ परेम मोटे-मोटे पोथी में लुकायल रहगेल । कोई ओकर परिभाषा ठीक से बूझबे-समझवे ना कएलक । ढोंगी के ढोल पिटाइत रहल । भर लिलार चन्दन पोतायेल रहल, चूल्हा के राखो तहाक ले घट गेल इ ढोंगियन के लिलार में पोताइत-पोताइत ।
बित्ता भर के चुरकी फहरवले गुनीबाबा ओह दिन बेना ओली के जात पर विचार ना कएलन, बाकी परसों हाडिंगपार्क में साथे बैठल अपन लाल सुधांशु के हँस-हँस के बतिआइत रजनियाँ के जात बरदास ना भेल उनका से । तड़ाक-तड़ाक चार बंकुली पीठ पर हन के गरजलन— “ डोमिनियां के बेटी के हिम्मत कइसे परल हमर बेटा से परेम करे केऽ…? ” खीस से थरथरा उठलन गुनीबाबा । आँख तड़ेरागेल उनकर ।
कलयुगिया शंकर के ताण्डव मच गेल । सतयुगिया शंकर के आँख से कामदेव जर के राख हो गेल हलन, इ कलयुगिया शंकर के ताण्डव से रजनियाँ जर के भसम हो गेल।
वृहस्पति के बेटा कच के राख देवयानी के बाप शुक्राचार्य के पेट फार देलक हल, रजनियाँ के राख गुनीबाबा के पेट कब फारत— उ दिन के इन्तजार हे ।
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