आर्यभट्ट, क्यों तुम माओ के बाद पैदा न हुए?
संकलन अश्विनीकुमार तिवारी

गणित की कक्षा में बालक सिद्ध कर रहा था (a+b)2 = a2+b2+2ab, मैने प्रश्न किया कि रेखागणितीय आकृतियों को ज्ञात करने वाला यह प्रसिद्ध सूत्र किसने दिया है? छात्र मेधावी था, उसने कहा कि मैं फॉरमूला सिद्ध कर सकता हूँ, किसने दिया क्या पता। मैंने अगला प्रश्न किया कि पाईथागोरस थ्योरम सिद्ध करो उसने ब्लैकबोर्ड पर त्रिभुज बनाते हुए लिखा
a2+b2 = c2 , छात्र सही था। पुस्तकों ने एक सूत्र को उसके जनक पाईथागोरस के नाम से पहचान दी लेकिन आर्यभट्ट के नाम से ही उनके प्रदत्त सूत्र की पहचान क्यों नहीं? इसे जाने दीजिये और खगोल शास्त्र में बीज गणित का प्रयोग करने वाले ब्रम्हगुप्त का यह प्रश्न हल कीजिये कि एक पहाडी की चोटी पर दो व्यक्ति रहते हैं। उनमें से एक जादूगर है। जादूगर उडता हुआ तिरछे मार्ग से एक स्थान पर उतरता है। दूसरा पैदल चलता हुआ उसी जगह पहुँच जाता है। दोनो ही व्यक्तियों की यात्रा दूरी समान है तो बताओ यह स्थान पहाडी से कितना दूर है? यह भी बताओ कि जादूगर किस ऊँचाई पर उड रहा था? यह सदियों पुराना प्रश्न क्या आज भी आधुनिक और प्रासंगिक नहीं है? ऐसे सवाल हमारी गणित की पाठ्यपुस्तक में कक्षा पाँचवी के पश्चात से प्रवेश कर जाते हैं। ठीक है कि गणित का इतिहास से क्या काम, कक्षा में सूत्र और प्रमेय हल हों वहीं तक ठीक, लेकिन क्या आपकी इतिहास की पुस्तकों का दायित्व नहीं कि वह बताये कि ऐसे प्रश्नों के रचयिता के शास्त्र का नाम ब्रम्हस्फुट सिद्धांत है? धन्वंतरी, पुनर्वसु आत्रेय, चरक, सुश्रुत, जीवक, पतंजलि, नागार्जुन, आर्यभट्ट, वाराहमिहिर, ब्रम्हगुप्त, महावीराचार्य आदि का उल्लेख यदि उनके युग के समाज की विवेचना के साथ सामने रखा जाये तो इतिहास को नयी दृष्टि प्राप्त होगी। विडम्बना यह है कि ऐसा नहीं किया जा रहा है।
जब समाज ईसा मसीह से कई हजार साल पुराना है तो समाजशास्त्र भी इतना ही पुराना होना चाहिये? केवल जाति-धर्म के विखण्डन का कथानक ही तो समाजशास्त्र नहीं है? हमने तथ्यों से खेला भी बहुत है और चतुराई पूर्वक मनोनुकूल व्याख्या करने में पीछे नही रहे हैं। वैदिक काल में कार्य विभाजन का यह उदाहरण देखें कि – कारूरह ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नाना। नानाधियो वसूयवोनुगा इव तस्थिमेंदायेंदो परिस्रव (ऋग्वेद) अर्थात मैं एक शिल्पी हूँ, मेरे पिता एक वैद्य हैं तथा मेरी माता अनाज पीसने का कार्य करती है, इस प्रकार हम सभी विभिन्न कार्यों में लगे हुए हैं। आलेख बहुत सारे उद्धरण समाहित नहीं कर सकता अत: एक चावल दबा कर ही भात पका या नहीं समझिये, और अब इतिहासकारों के पूर्वाग्रह पर भी ध्यान दें। पुस्तक ‘इतिहास की पुनर्व्याख्या’ के एक आलेख में वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर लिखती हैं कि – “वैदिक युग को बढा चढा कर आंका गया और प्राच्यविदों ने प्राचीन भारतीयों को खुशहाल ग्राम्य समाज के लोगों के रूप में देखा। तनाव भरी बातों को नजरंदाज कर दिया गया और गौरव के पक्ष पर जोर दिया गया। यह उन कट्टरपंथी हिंदुओं के विचारों से मेल खाता था जो जैसे तैसे वेदों और वैदिक साहित्य से जुडी हर चीज की महानता में विश्वास रखते थे (पृ – 88)।” रोमिला थापर ने हाल ही में शहरी मओवादियों के समर्थन में मुखरता से अपनी पक्षधरता भी स्पष्ट की है अत: उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता निस्संदेह स्पष्ट है। अत: उद्धरण में कुछ शब्दों पर ध्यान दीजिये – “बढा चढा कर आंका गया”, “कट्टरपंथी हिंदुओं के विचार”, “जैसे तैसे वेद और वैदिक साहित्य” “महानता में विश्वास” आदि। आप रोमिला थापर का लिखा मध्यकालीन इतिहास पढिये और एक पंक्ति बताईये जहाँ उन्हें मंदिर तोडने वाले, धर्मपरिवर्तन के लिये खून-खराबा कर देने वाले आक्रांता “कट्टरपंथी मुसलमानों के विचार” अथवा “जैसे तैसे” नजर आये हों? आप इन इतिहासकारों से अपने वाक्य के समर्थन में कोई स्पष्ट उद्धरण नहीं पायेंगे चूंकि तथ्यपरक प्रतिवाद संभव है।
एक सेमीनार में जब मैंने निर्पेक्षता और तथ्यपरकता की बात की तो इतिहास के एक प्राथ्यापक ने मुझे टोक दिया। उन्हें निर्पेक्षता शब्द से आपत्ति थी और मानना था कि विचारधारा के बिना इतिहास लेखन क्या? इसके लिये उन्होंने मार्क्स-लेनिन के विचारों की झडी लगा दी। मैं उनकी आक्रामकता देख कर सोच रहा था कि इनके विद्यार्थी क्या कभी स्वतंत्र सोच विकसित कर सकेंगे? वामपंथी जब साहित्य में घुसे तो साहित्य की परम्परायें ध्वस्त हो गयीं, अब हालात यह कि कविता-कहानी के पढने वाले ही न रहे। वही घिसी पिटी बेसुरी-बेताली कविता, वही निर्धारित अंत वाली कहानी। यही हश्र इतिहास, समाजशास्त्र, गणित और विज्ञान का भी हुआ है। अगर कोई कहे कि मैं वैज्ञानिक हूँ इसलिये ऐसा कह रहा हूँ तो एक बार उसका पंथ भी अवश्य पता करें। यह इसलिये कि मैंने बीबीसी हिन्दी में एक आलेख पढा “प्राचीन भारतीय विज्ञान या धर्म की रतौंधी” लेखक थे वैज्ञानिक अमिताभ पाण्डेय (प्रकाशन 05/01/2015)। उनके फेसबुक पेज पर जा कर पंथ की जानकारी ली तो मार्क्स-लेनिन-माओ धारा का अभिज्ञान हुआ। इसीलिये कुछ उद्धरण रख रहा हूँ। विज्ञान और वैज्ञानिक कहलाने के नाम पर विचारधारा पोषण के लिये झूठ की खेती कैसे होती है यह जानना आवश्यक है। उनका विरोध था कि विज्ञान सम्मेलन में कैप्टन आनंद जे बोडास और अमेया जाधव को ‘प्राचीन भारत में वैमानिक तकनीक’ पर प्रपत्र पढने का अवसर क्यों दिया गया। आलेख का अंत वे करते हैं - “जो सभ्यता पांच हज़ार सालों में बैलगाड़ी के पहिए की धुरी में बॉल-बियरिंग तक न लगा पाई हो उसके लाखों बरस पहले अंतरग्रहीय विमान के दावों पर हंसा भी तो नहीं जा सकता है”। यह पढ कर मैं स्तब्ध हूँ कि हे आर्यभट्ट, हे वाराहमिहिर, हे चरक, हे सुश्रुत तुम सब ही भारत के ज्ञान विज्ञान के वर्तमान हश्र के जिम्मेदार हो। तुम माओ के बाद क्यों न पैदा हुए?
यह विज्ञान का समय है, हमें वैज्ञानिक सोच रखनी चाहिये, पूर्वाग्रही नहीं। हर रंग के झंडे और नारे से बाहर आ कर प्राचीन और नवीन ज्ञान के बीच समुचित सेतु बनाने की आवश्यकता है। पाठ्यपुस्तकों का पुनर्विवेचन होना ही चाहिये तथा निर्पेक्ष विद्वानों का पैनल बना कर ऐसा आवश्यक रूप से किया जाना चाहिये। यदि विचारधारा की एकपक्षीयता का अंदेशा हो तो अनेक धारा के विद्वानों का पैनल बनाया जाना चाहिये। विद्यार्थियों को किसी विषय को देखने के कई आयाम प्राप्त होने चाहिये। घोडे की आँख के दोनो तरफ अवरोधक लगा कर उसे सडक पर दौडाने की वृत्ति हमारे शैक्षणिक संस्थानों मे आम है तथा छात्रों को विवेचना के आयाम नहीं कोटा के टिकट थमा दिये जाते हैं।
- ✍🏻राजीव रंजन प्रसाद,
सम्पादक, साहित्य शिल्पी ई पत्रिका
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