अपनेपन को लगे भूलने
सत्येन्द्र तिवारी लखनऊ
धीरे धीरे बोझिल होकर,
लगी झूलने।
दिन पर दिन असहाय हो रहे
महंगाई के बैतालों से
बूढ़े कांधे
कथा सुनाकर प्रश्न पूछते
नहीं छोड़ते उत्तर के बिन
तन मन बांधे
सह न सकेंगे अब यह बोझा
अपने पन को धीरे धीरे
लगे भूलने।
अम्मा बाबू आस लगाए
ताक रहे बीबी बच्चे मुंह
रूप अनोखे
सबकी अपनी अपनी चाहत
चश्मा,दावा, पेट की रोटी
किसको देखे
समय निगोड़ा भाग रहा है
रह रह वय भी अपनी कीमत
लगी बोलने।
मिल जुल कर रहते थे जिनसे
उन्हें देखकर पैर ठिठकते
मन घबराता
पंख बांध कर जैसे पांखी
बेबस बंदी हो पिंजरे में
क्या उड़ पाता
उम्मीदों का कजरा आंजे
आंखों के सपने आंसू पर
लगे तौलने।
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सत्येन्द्र तिवारी लखनऊ
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