धूप है बहरी
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दोपहर है जेठ की अब
धूप सुनती ही नहीं है
हो गयी बहरी
तप रही पुरजोर पछुआ
जोर अजमाये
अब बहुत छोटे हुये हैं
पेड़ के साये
दूर झिलमिल हिल रही है
आग दोपहरी
लू लगाती है तमाचे
कान के नीचे
गेह में गुम-सुम छिपे हैं
आँख को मीचे
हैं पसीने से हुये तर
ऊब है ज़हरी
आबाद घर खमसार है
चहके बरोठे
खेलते हैं दहला पकड़
दो चार बैठे
शोर करते जा रहे अब
और मत दह री
लौटते दिन पशु-पखेरू
ताप से घायल
बादलों को याद करते
माँगते है जल
दे रही मन को दिलासा
नीम है छहरी
दोपहर है जेठ की अब
गाँव में ठहरी
धूप सुनती ही नहीं है
हो गयी बहरी
*
~जयराम जय
ग्राम/पोस्ट.सुल्तानगढ,तहसील बिंदकी
जिला:फतेहपुर (उ.प्र.)
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