Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

यू टर्न

यू टर्न

श्री कमलेश पुण्यार्क “गुरूजी”

 वटेसर काका आज जरा मौज़ी मिज़ाज में नजर आए । आते ही बिना किसी भाव-भूमिका के उचरने लगे— ट्रैफिक में यू टर्न का बहुत महत्त्व है। इसी का कॉपी-पेस्ट  राजनीति में भी होता है। और चुँकि राजनीति में होता है, इसलिए समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र में भी महत्त्वपूर्ण हो जाए, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। आजकल चारों ओर यूटर्न का बोलबाला है। ऐसे में हमें लगता है कि सतातनसंस्कृति वाला यूटर्न भी अपना ही लेने में भलाई है, भले ही अबतक मनुवादी विचारधारा कह कर गरियाते क्यों न रहे हों । कहने वाले तो बहुत कुछ कहते रहते हैं। कुछ कहते रहना उनकी लाचारी भी है। कुछ कहेंगे नहीं, तो लोग भीड़ लगाकर, तालियाँ बजाकर , गाल पर हाथ धरकर, गर्दन उठाकर, गर्दन झुकाकर सुनेंगे कैसे ? भाषण और सत्संग में आगे बैठने का अवसर मिल जाए, तो ऊँघने का मजा, ताली बजाने से भी कहीं ज्यादा ही है।  रहस्यमय बात ये है कि ज्यादातर लोग वैसी जगहों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में यकीन रखते हैं। भाषण वा सत्संग से कुछ खास लगाव तो होता नहीं। नैमिषारण्य में ऋषिगोष्ठियाँ तो अब लगती नहीं और न काकभुशुण्डी-गरुड़ संवाद ही होता है। हाँ, धर्मप्राण देश में सत्संग और कथावाचन का रोजगार तो जमना ही जमना है। स्वयं भावमय हो ना हो, भावमय कर देने का हुनर यदि हो, तो फिर क्या कहना—आदर-सम्मान और ऐश्वर्य सबकुछ झोली में फटाफट आ टपकते हैं, जैसे पके हुए आम और कटे हुए सिर जमीन पर आ गिरते हैं।  दुखती रग की सही पहचान यदि हो और भड़काऊ भाषण देने की शैली आती हो तो ताली बजाने वालों की भीड़ इकट्ठी होने में ज्यादा समय नहीं लगता   लालकिला, गाँधीमैदान और जन्तर-मन्तर वाला खेल भी खूब जमता है । खुदा न खास्ते ये सब जगहों पर मौका न मिले, तो चौक-चौराहे, सड़क-नुक्क़ड़ कहीं भी जगह बनायी जा सकती है। आँखिर बोलना जरुरी है न ! बोलेंगे ही नहीं, तो रोजी-रोटी कैसे चलेगी? बाबाजी हों या नेताजी , सबकी रोजी-रोटी बोली-बकार पर ही टिकी है। यही कारण है कि जो जब जी में आता है, बोल लिया जाता है—रामधुन गाते-गाते अचानक  अलीमौला-अलीमौला गाने में आँखिर हर्ज ही क्या है? सीता-परित्याग की घिसी-पिटी कहानी में अब उतना रस कहाँ रह गया है ! नित नये नयनों का शिकार बनने और शिकार करने में जो आनन्द है, वो भला एकपत्नीव्रता राम को  कहाँ नसीब ! अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान वाला भजन पहले वाले एक सन्त ने भी गाया था कि नहीं ? भारतमाता के दोनों वाजू कट ही गए तो क्या हो गया?  स्वतन्त्रता तो मिली न, आरक्षण का लाभ मिला न? चीखने-बोलने-बकवास करने की, गालियाँ देने की, जरुरत के मुताबिक जूते चलाने की सुविधा मिली न ? और क्या चाहिए सबकुछ तो मिल ही गया।  दानवीर शिवि और कर्ण के उत्तराधिकारी राष्ट्र को टुकड़े-टुकड़े करके रेवड़ियों की तरह बाँट देना चाहते हैं आज के बुद्धिजीवी, पुरस्कारग्राही और डिज़ाइनर पत्रकार, तो इसमें बुराई ही क्या है? अरे भाई ! लोकतन्त्र में सबका अधिकार समान है। कोई जोड़ने की जुगत में है, तो कोई तोड़ने की तिगड़म में । सभी अपनी-अपनी समझ के मुताबिक देशहित में जुटे हैं। राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रहित की परिभाषा का मॉर्डेनाइजेशन भी तो हो गया है। चायवाला प्रधानसेवक बन गया, बड़ी अच्छी बात है । बदलाव होते रहना चाहिए; किन्तु लेडी एडविना के चहेते के आद-औलाद की खानदानी कुर्सी छिन जाए—ये भी भला कैसे बरदास्त किया जा सकता है ! मुगलों से लेकर फिरंगियों तक के लूट-अत्याचार सहने पर भी क्या अभीतक अत्याचार-भ्रष्टाचार सहने की आदत नहीं बनी ! इन दोनों का   कॉकटेल भी तो लम्बे समय तक चख लिए देशवासी । अबतक तो अनाचार, कदाचार, भ्रष्टाचार सहने का अभ्यास हो ही गया होगा । और नहीं हुआ हो तो हो जाना चाहिए। फालतू के शिष्टाचार में धरा ही क्या है !

ये क्या बक रहे हैं काका ! एकदम से सठिया गए हैं क्या?— उनकी बातों को लीक से भटकता हुआ देख, मैंने टोका । किन्तु काका का वक्तव्य-प्रवाह पूर्ववत जारी रहा ।

मैं भला क्यों सठियाने लगा । सठिया तो गए हैं हमारे रहनुमा। हमारे आदर्श पुरुषलोग । रोज-रोज नये-नये फरमान जारी हो रहे हैं—ये करो,वो करो,ये ना करो,वो ना करो। अब जरा तुम्हीं बतलाओ – टिशूपेपर से पिछवाड़ा रगड़कर पोंछने वालों से शुद्धिकरण की विधि सीखूँ? छूआछूत को तोड़-मरोड़कर ठूंसते रहा जनमानस में । कायदे से पखाना-पेशाब करने का भी जिसे सऊर नहीं है, खाने-पीने की वानरी व्यवस्था सिखलायी जिसने और आधुनिकता के नाम पर सहर्ष स्वीकार किया सबने । और अब कहते हैं— सोशल डिसटेंसिंग की बात । अरे मूर्खो के दुम ! मेकाले के औलादों ! ! आँखें खोलकर, जरा यूटर्न लेकर देख — शौचाचार के हमारे पुराने नियमों को, छूआछूत के रहस्य को ठीक से समझ। मिलने-जुलने, खाने-पीने, पहने-ओढ़ने, सोने-जागने, बैठने-चलने आदि की विधि-व्यवस्था को बूझ । चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट के वंशजों को स्वास्थ्य-रक्षण की विधि बतलाने चला है मूरख ? परशुराम,पतंजलि,व्यास, वशिष्ठ, विश्वामित्र, भरद्वाज, वराहमिहिर और आर्यभट्ट के उत्तराधिकारियों को ज्ञान-विज्ञान बताने चला है ज़ाहिल ? विदुर और चाणक्य के अनुयायियों को नीति सिखाने चला है ? विवेकानन्द का नाम तो जरुर याद होगा, जिसने तुम्हारी ही धरती पर जाकर तुम्हारी हकीकत वयान किया था, जब तुमने हँस कर पूछा था दोनों संस्कृतियों का फर्क । हो सकता है, तुम भूल गए होओगे वो लौहवाक्य — पूर्वी और पश्चिमी संस्कृति में यही अन्तर है कि  तुम्हारे यहाँ सिर्फ एक माँ होती है और बाकी सिर्फ औरत, जिसे जब चाहे,जैसे चाहे भोगा जा सकता है। और हमारे यहाँ एक पत्नी होती है और बाकी सब माँ ।

क्षण भर के लिए काका रुके और मेरी ओर दृष्टि गड़ाकर कहने लगे —  “ अरे मेरे बच्चे ! बहुत भटक लिए। अब घर वापस आ जा यूटर्न लेकर । तुम्हारी संस्कृति तुम्हें पुकार रही है।  जयमाँ भारती ।

                              दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ