इंडो-चाइना विवाद
अश्विनी
कुमार तिवारी , कैमूर बिहार
क्या वाक़ई
आज माहौल है कि भारत-चीन की झड़प के मूल कारणों पर चर्चा की जाए?
अव्वल तो
यही कहूंगा कि साहित्यकार को मौकापरस्त नहीं होना चाहिए कि कुछ लिखने के लिए अवसर
की प्रतीक्षा की जाए। किन्तु वैसी घटनाओं के पश्चात् आम जनमानस की चेतनाएं उस घटना
के उद्गम व निकट इतिहास की ओर जिज्ञासु हो जाया करती हैं। और ठीक इसी बिंदु का लाभ
उठाकर इंटरनेट का “फ़ेक न्यूज़”
एजेंडा अपनी जगह न केवल सुनिश्चित करता है, बल्कि
अकाट्य सत्य की तरह जिज्ञासु चेतनाओं के भीतर घर बना लेता है।
अस्तु,
साहित्यकार को चाहिए कि किसी घटना के उपरांत न्यायाधीश की भांति
नहीं, बल्कि उन तमाम जिज्ञासु चेतनाओं के लिए ही समसामयिक
लेखन का बीड़ा उठाए।
द्वितीय
विश्वयुद्ध के बारे में एक उक्ति है कि ये युद्ध वस्तुतः युद्ध को ख़त्म करने के
लिए लड़ा गया : “अ वॉर टू एंड द वॉर!” इस उक्ति के पीछे पश्चिमी मान्यता है कि पहला विश्वयुद्ध सन् 1919 में
ख़त्म ही नहीं हुआ था। केवल काग़ज़ी तौर पर समझौता हुआ और स्थिति को जस की तस छोड़
दिया गया। बंदूक़ों के बैरल झुक गए थे, मगर शांति-प्रतीक
ढालें तो नहीं निकली थीं। टुकड़ियों के मुँह अपनी अपनी राजधानियों की ओर हो गए थे,
मग़र जिरह-बख़्तर तो नहीं उतरे थे।हर सैनिक, हर
नागरिक और हर सरकार कहीं न कहीं किसी न किसी मोर्चे पर प्रथम विश्वयुद्ध को लड़
रही थी! बैलगाड़ी में भर कर नोट ले जाना और बदले में केवल एक ब्रैड का पैकेट पाना,
ये मानवता और भूख के बीच होने वाल विश्वयुद्ध नहीं तो और क्या था?
ऐन यही हश्र जर्मन-पोलिश यहूदों का था।
ख़ैर!
प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध के संधि-संक्रमण काल पर कभी विस्तृत चर्चा करेंगे। दिल
तो इतना कि “विंस्टन चर्चिल” की नोबल पुरस्कृत द्वितीय विश्वयुद्ध शृंखला का हिंदी-अनुवाद कर डालें।
किंतु फ़िलहाल का मुद्दा है, भारत-चीन तनाव।
इस तनाव की
भूमिका में विश्वयुद्धों का उल्लेख इस प्रयोजन से हुआ कि एक बहुत बड़ा युद्ध चाहिए,
लगातार चलते युद्ध के समापन हेतु! इस सत्य को आप सार्वजनिक स्वीकृति
दें अथवा असहमति, मग़र हम सबके दिल जानते हैं कि भारत-चीन
युद्ध, जोकि सन् 1962 में शुरू हुआ, आज
तलक भी ख़त्म न होने पाया है।ध्यातव्य हो कि इन मतभेदों की शुरुआत आज़ाद भारत में
नहीं हुई है, बल्कि चीन से दूरियाँ बनाने का निर्णय ब्रितानी
सरकार का था। ब्रितानी हुकूमत को लगता था कि सोवियत अपना दायरा अरब सागर तक बढ़ाने
की इच्छा रखता है। इन्हीं शंकाओं और फिर इनके लिए होने वाले व्यर्थ के प्रबंधनों
के कारण भारत की उत्तरी सीमाओं को जल्दबाज़ी में अस्पष्ट रूप से खींच दिया गया।और
आज तलक हम कभी चीन तो कभी नेपाल के साथ होने वाले सीमा विवादों से दो चार होते
रहते हैं!चूँकि सीमाओं की इस अस्पष्टता को स्पष्ट करने का एक यत्न तक आज़ाद भारत
की अंतरिम सरकार के द्वारा नहीं किया गया। सो, विवाद पूरा
श्रेय कांग्रेस की लिजलिजी व ढुल-मुल विदेश नीति को जाता है।जनाब नेहरू चीनी
समकक्ष के साथ गलबहियाँ डाले हिंदी-चीनी भाई भाई तो कहते रहे, मग़र सीमाओं की ओर एक भी प्रयास न कर सके। फिर कुछ यों हुआ कि सन् 1959
तिब्बतियन धर्मगुरु “दलाई लामा” को
अपने साथ लेकर आ गया।वास्तव में, “दलाई लामा” को भारत में सुरक्षित शरण मिलने की इस घटना, भारत-चीन
विवादों की आधारशिला कही जाए, तो अनुचित न होगा! बहरहाल,
ये आवश्यक है कि इस सबकी शुरुआत कहाँ से हुई?
चीन के
रहस्यों की टूटन में भारतीयों का बड़ा योगदान रहता है!
चीन की
अपने आर्थिक बाज़ार की सफलताओं के प्रति कमजोरी हो या अपने राष्ट्र के रहस्यों के
प्रति सजगता, हर मामले में उसे भारतीय बाधाओं
का समाना करना पड़ता है। इसकी शुरुआत “पंडित नैन सिंह रावत”
ने की थी!ये उस दौर की बात है, जब इंटरनेट न
था, अंतरिक्ष में उड़ते कृत्रिम उपग्रह न थे। ऐसी अंधेरी
स्थिति में, प्रभावशाली राष्ट्र अपनी झूठी सीमाएं बनाकर निकट
के कमजोर राष्ट्रों को भयाक्रांत किया करते थे। एशिया में चीन के इस भरम को श्री
नैन ने तोड़ा था!
सन् 1830
में “कुमाऊँ” की “जोहार” घाटी की “गोरीगंगा” नदी के
किनारे, आजकल के “पिथौरागढ़” में जन्मे श्री नैन को आधुनिक काल का पहला भारतीय जासूस कहा जाना चाहिए।
एक ऐसा
जासूस,
जो सेनाओं और साम्राज्यों के रहस्य नहीं चुराता था, बल्कि उनकी वास्तविक सीमाओं को दुनिया के सम्मुख रखकर उनकी साम्राज्यवादी
प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने का काम किया करता था।
विधाता ने
श्री नैन को कैसी विकट दूरदृष्टि प्रदान की थी, उन्हें
सौ वर्ष पूर्व ही चीन की एक गुप्त यात्रा करने की प्रेरणा मिली। इस यात्रा से
संसार ने दो सत्यों का उद्घाटन पाया :अव्वल तो ये कि तिब्बत और चीन की स्पष्ट सीमा
क्या है। और दूजा ये कि भारत जिस नदी को “ब्रह्मपुत्र”
कहता है, वो ही तिब्बत की “सांगपो” नहीं है और उसका उद्गम “मानसरोवर” से है। -- इस रहस्योद्घाटन ने संसार को तिब्बत
जैसे शांत और धर्मपरायण राष्ट्र की सुरक्षा के प्रति चिंता में डाल दिया था। चूँकि
चीन के द्वारा किए जाने वाले तमाम भौगोलिक दावे कोरे झूठ सिद्ध हो चुके थे। पंडित
नैन सिंह सिंह रावत विषय में हमारे कुछ सदाशय लेखकों ने बड़े विस्तार से लिखा है,
जैसे कि डॉ उमा भट्ट और डॉ शेखर पाठक की प्रसिद्ध पुस्तक “ऑन द बैक ऑफ़ एशिया” : हिंदी में “एशिया की पीठ पर”। श्री नैन को भारतीय पोस्टल विभाग
ने डाक टिकट पर सन् 2004 में जारी कर सम्मानित किया, उनके
प्रति राष्ट्र की कृतज्ञता प्रकट की। और फिर 2013 की दो फ़रवरी को “द हिंदू” में श्याम जी मेनन का एक विस्तृत लेख भी
प्रकाशित हुआ था : “वॉकिंग विथ नैन सिंह”।1870 के दशक में हुए इन खुलासों के पश्चात् श्री नैन सिंघ रावत को “एशियन एक्सप्लोरर” का ख़िताब तो मिल ही गया था,
साथ ही, चीनी चेतना में भारतीय जनता के साहस
और उद्यम की भावना के प्रति दुराव ने अपनी एक ख़ास जगह भी बना ली थी।
बड़े दुःख
के साथ कहना पड़ता है कि इस दुराव की भनक ब्रितानी साम्राज्य को थी,
उन्होंने भारत-चीन सीमाओं के लिए कुछ कच्चे पक्के कदम भी उठाए।
किंतु ये उनका अपना देश नहीं था। सो, उन ब्रितानी प्रयत्नों
में गम्भीरता की कमी थी। हालाँकि, वैसी गम्भीरता की आशा हमें
भारत की अंतरिम कांग्रेसी सरकार से अवश्य थी! किंतु उनका अपना देश होने कि बाद भी,
उनकी ओर से चीनी ख़तरे के प्रति अंग्रेजों जैसी सज्जता भी नहीं
दिखाई दे सकी।
काश! कि
मैं और आप इतिहास में जाकर इन अपरिपक्व नेहरू-निर्णयों को बदल पाते। काश!
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